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टिप्पण : अध्ययन ५ (द्वितीय उद्देशक )
श्लोक १:
१. दुर्गन्धयुक्त हो या सुगन्धयुक्त ( दुगंधं वा सुगंधं वा ग ) :
दुर्गन्ध और सुगन्ध शब्द अमनोज्ञ और मनोज्ञ आहार के उपलक्षण हैं। इसलिए दुर्गन्ध के द्वारा अप्रशस्त और सुगन्ध के द्वारा प्रशस्त वर्ण, रस और स्पर्शयुक्त अाहार समझ लेना चाहिए।
शिष्य ने पूछा गुरुदेव ! यदि श्लोक का पश्चाई पहले हो और पूर्वाद्धं बाद में हो, जैसे -- 'संयमी मुनि दुर्जन्ध या सुगन्धयुक्त सब आहार खा ले, शेष न छोड़े, पात्र को पोंछ कर लेप लगा रहे तब तक' तो इसका अर्थ सुख-ग्राह्य हो सकता है ?
आचार्य ने कहा ..प्रतिग्रह' शब्द मांगलिक है । इसलिए इसे आदि में रखा है और 'जूठन न छोड़े' इस पर अधिक बल देना है, इसलिए इसे बाद में रखा है। अतः यह उचित ही है। इस श्लोक का आशय यह है कि मुनि सरस-सरस आहार खाए और नीरत आहार हो उसे जूठन के रूप में डाले -ऐसा न करे किन्तु स रस या नीरस जैसा भी आहार मिले उन सब को खा ले।
तुलना के लिए देखिए आयार घूला ११६ ।
श्लोक २: २. उपाश्रय ( सेज्जा क):
अगस्त्यसिंह ने इसका अर्थ 'उपाश्रय'२, जिनदास महत्तर ने 'उपाश्रय' मठ, कोष्ठ और हरिभद्र सूरि ने 'वसति' किया है।
३. स्वाध्याय भूमि में ( निसीहियाए क ) :
स्वाध्याय भूमि प्राय: उपाश्रय से भिन्न होती थी। वृक्ष-मूल आदि एकान्त स्थान को स्वाध्याय के लिए चुना जाता था। वहाँ जनता के आवागमन का संभवतः निषेध रहता था । 'नषेधिकी' शब्द के मूल में यह निषेध ही रहा होगा। दिगम्बरों में प्रचलित 'नसिया' इसीका अपभ्रंश है।
१--(क) जि० चू० पृ० १६४ : सीसो आह-जइ एवं सिलोगपच्छद्ध पुदिव पढिज्जई पच्छा पडिग्गहं संलिहिताणं, तो अत्थो
सुहगेज्झयरो भवति, आयरिओ भणइ-सुहमुहोच्चारणत्थं, विचित्ता य सुत्तबंधा, पसत्थं च पडिग्गहगहणं उद्देसगस्स
आदितो भण्णमाणं भवतित्ति अतो एयं सत्तं एवं पढिज्जति । (ख) अ० चू पृ० १२५ : भुत्तस्स संलेहणविहाणे भणितव्वे अणाणुपुवीकरणं कहिंचि आणुपुश्विनियमो कहिचि पकिण्णकोपदेसो
भवति ति एतस्स परूवणत्थं । एवं च घासेसणा विधाणे भणिते वि पुणो वि गोयरग्गपविट्ठस्स उपदेसो अविरुद्धो। णग्ग
मुसितपयोग इवा वा 'दुग्गंध' पयोगो उद्देसगादौ अप्पसत्थो त्ति ।। २--अ० चू० पृ० १२६ : 'सेज्जा' उवस्सओ। ३-जि० चू० पृ० १६४ : सेज्जा-उवस्सतादि मट्ठकोट्ठयादि । ४- हा० टी०प० १८२ : 'शय्यायां' वसतौ। ५- (क) अ० चू० पृ० १२६ : 'णिसीहिया' सज्झायथाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादौ सैव निसीहिया।
(ख) जि० चू० पृ० १६४ : तहा निसोहिया जत्थ सज्मायं करेंति। (ग) हा० टी० ५० १८२ : 'नषेधिक्यां' स्वाध्यायभूमौ ।
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