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दसवेलियं ( दशवेकालिक )
४. गोचर ( भिक्षा ) के लिए गया हुआ मुनि मठ आदि में ( समावन्नो व गोयरे ख ) : गोचर-काल में छात्रावास आदि एकान्त स्थान में साधुओं के लिए है'। अगस्त्यसिह ने इसका सम्बन्ध पूर्व व्याख्या (२.१.६२ ) से जोड़ा है।
५. अपर्याप्त ( अयावयट्ठा) :
२७४ अध्ययन ५ ( द्वि० उ० ) इलोक ३, ४ टि० ४-८
इसका अर्थ है- जितना चाहे उतना नहीं अर्थात् पेट भर नहीं । तुलना के लिए देखिए
( ५.४६ ) |
७. कारण उत्पन्न होने पर ( कारणमुत्पन्ने के ) :
आहार करने का विधान बाल, वृद्ध, तपस्वी या अत्यन्त शुचित और तृषित
६. न रह सके तो ( न संथरे घ ) :
दूसरी बार भिक्षाचरी करना विशेष विधि जैसा जान पड़ता है। टीकाकार तपस्वी आदि के लिए ही इसका विधान बतलाते हैं, प्रतिदिन भोजन करने वाले स्वस्थ मुनियों के लिए नहीं । मूल सूत्र की ध्वनि भी लगभग ऐसी ही है ।
श्लोक ३ :
यहां 'कारण' शब्द में सप्तमी विभक्ति के स्थान में 'मकार' अलाक्षणिक है ।
पुष्ट आलम्बन के बिना मुनि दूसरी बार गोचरी न जाए, किन्तु क्षुधा की वेदना, रोग आदि कारण हो तभी जाए। साधारणतया जो एक बार में मिले उसे खाकर अपना निर्वाह कर ले ।
मुख्य कारण इस प्रकार हैं- (१) तपस्या, (२) अत्यन्त भूख-प्यास, ( ३ ) रुग्णावस्था और (४) प्राघूर्णक साधुओं का आगमन ।
श्लोक ४ :
ग
८. अकाल को वर्जकर ( अकालं च विवजेता " ) :
प्रतिलेखन का काल स्वाध्याय के लिए अकाल है । स्वाध्याय का काल प्रतिलेखन के लिए अकाल है। काल मर्यादा को जानने वाला भिक्षु अकाल-किया न करे।
१- (क) जि० चू० पृ० १६४ : गोयरग्गसमावण्णो बालबुड्ढखवगादि मट्ठकोट्ठगादिसु समुद्दिट्ठो होज्जा ।
(ख) हा० टी० प० १०२ समापन्नो वा गोचरे, क्षयका छन्नमठाव ।
२- अ० चू० पृ० १२६ : गोयरे वा जहा पढमं भणितं ।
३ (क ) ० ० ० १२६ एते पाप भोरचा नं जावद
(ख) जि० चू० पृ० १९४ : अयावयट्ठे नाम ण यावयट्ठ, उट्ठ (ऊणं ) ति वृत्तं भवति । (ग) हा० टी० प० १८२ : न यावदर्थम् अपरिसमाप्तमिति ।
४- हा० डी० १० १२ दिन भुक्तेन न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः अप विद्यमान ग्लानोदेति ।
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पाचदभिप्रायं तविवरीय 'मतावयट्ठे भुंजिता ।
५– (क) अ० ० पृ० १२६ : सो पुण खमओ वा जधा "वियट्ठभत्तियस्स कप्पंति सव्वे गोयरकाला ( दशा० श्रु० ८ सूत्र २४४) छुधालु वा दोसीणाति पढमालियं काउं पाहुणएहिं वा उवउत्ते ततो एवमातिम्मि कारणे उप्पण्णे ।
(ख) हा० टी० प० १८२ ततः कारणे' वेदनादावुत्यन्ने पुष्टालम्बनः सन् भक्त-यानं गवेषयेद्', अन्विष्ये (वेषये तु अन्यवा सदभुक्तमेव यतोनामिति ।
६ - (क) अ० चू० पृ० १२६ : जधोतियं विवरीयं 'अकालं च सति कालमवगतमणागतं वा एतं 'विवज्जेत्ता' चतिऊण, ण केवलं भिखाए पडिहातीणमवि जहोतिते ।
(ख) जि० चू० पृ० १९४ : 'अकालं च विवज्जेत्ता' णाम जहा पडिलेहणवेलाए सज्झायस्स अकालो, सज्झायवेलाए पडिलेहणाए अकालो एवमादि अकालं विवज्जित्ता ।
(ग) हा० टी० प० १८३ : 'अकालं च वर्जयित्वा' येन स्वाध्यायादि न संभाव्यते स खल्वकालस्तमपास्य ।
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