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पिडेसणा (पिण्डेषणा )
६. जो कार्य जिस समय का हो उसे उसी समय करे ( काले कालं समायरे घ) :
इस श्लोक से छट्ठ श्लोक तक समय का विवेक बतलाया गया है। मुनि को भिक्षा काल में भिक्षा, स्वाध्याय -काल में स्वाध्याय और जिस काल में जो क्रिया करनी हो वह उसी काल में करनी चाहिए' ।
२७५ अध्ययन ५ (द्वि० उ० ) श्लोक ५-७ टि०१-१२
सूत्रकृताङ्ग के अनुसार - भिक्षा के समय में भिक्षा करे, खाने के समय में खाए, पीने के समय में पिए, वस्त्र - काल में वस्त्र ग्रहण करे या उनका उपयोग करे, लयन-काल में ( गुफा आदि में रहने के समय अर्थात् वर्षाकाल में ) लयन में रहे और सोने के समय में सोए । काल का व्यतिक्रम मानसिक असन्तोष पैदा करता है। इसका उदाहरण अगले श्लोक में पढ़िए ।
श्लोक ५ :
१०. श्लोक ५
एक मुनि अकालचारी था। वह भिक्षा काल को लाँघकर आहार लाने गया । बहुत घूमा, पर कुछ नहीं मिला । खाली झोली ले वापस आ रहा था । कालचारी साधु ने पूछा "क्यों, भिक्षा मिली ?" वह तुरन्त "इस गाँव में भिक्षा कहां है ? यह तो भिखारियों का गाँव है ।"
बोला
अकालचारी मुनि की इस आवेश-पूर्ण बाणी को सुन कालचारी मुनि ने जो शिक्षा-पद कहा वही इस श्लोक में सूत्रकार ने उद्धृत किया घटनाक्रमों का त्यों रखते हुए सूत्रकार ने मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है, जैसे चरति पडिलेहसि किलामेसि गरिहसि
श्लोक ६ :
११. समय होने पर ( सइ - काले क ) :
'सइकाले' का संस्कृत रूप 'स्मृतिकाले' भी हो सकता है। जिस समय भिक्षा देने के लिए भिक्षुओं को याद किया जाए उस समय को स्मृति-काल कहा जाता है ।
श्लोक ७
१२. श्लोक ७-८ :
सातवें और आठवें श्लोक में क्षेत्र विवेक का उपदेश दिया गया है। मुनि को वैसे क्षेत्र में नहीं जाना चाहिए जहाँ जाने से दूसरे जीव-जन्तु दर कर उड़ जाएँ, उनके खाने-पीने में दिन पड़े आदि-आदि। इसी प्रकार भिचार्य गए हुए मुनि को गृह आदि में नहीं वंदना चाहिए।
१० सू० पू० १६४-५ भिलावेला भिवं समायरे पणिवेलाए पडिले समायरे एवमादि, भणियं च 'जोयो जोगो जिगामि दुखापतो अपवाहंत असतो होड कावध्यो ।' २० २.१.१५ अन्न अन्नकाले, पापाकाले पत्थं त्यकाले, लेणं लेणकाले, सका।
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- (क) जि० चू० पृ० १०५: तमकालचारि आउरीभूतं दट्ठू ण अण्णो साहू भणेज्जा- लद्वा ते एयंमि निवेसे भिक्खति ? भइ -- कुओ एत्थ थंडिल्लगामे भिक्खत्ति । तेण साहुणा भण्णइ -तुमं अप्पणो दोसे परस्स उर्वारिनि वाडेहि, तुम पमादबोले सम्झायलोने या कालं न पास, अप्पा अईहिडीए ओमोदरियाए किलामेसि इमं सन्निवेच गरि हसि, जम्हा एते दोसा तम्हा ।
(ख) हा० टी० प० १८३ ।
४ - हा० टी० प० १८३ : 'सति'
विद्यमाने 'काले' भिक्षासमये चरेद्भिक्षु, अन्ये तु व्याचक्षते - स्मृतिकाल एव भिक्षाकालोऽभिषीय स्मयं पत्र भिक्षाका: स स्मृतिकाः ।
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५- हा० टी० प० १८४ : उक्ता कालयतना, अधुना क्षेत्रयतनामाह ।
६- हा० डी० प० १८४ तासनेनान्तरायाधिकरणादिदोषात् ।
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