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________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १३. न बैठे (न निसीएन ) : यहाँ बैठने के बारे में सामान्य निषेध किया गया है'। इसके विशेष विवरण और अपवाद की जानकारी के लिए देखिए बृहत्कल्प सूत्र ( ३.२१-२२) । अनुसंधान के लिए देखिए अध्याय ६ श्लोक ५६-५६ । २७६ अध्ययन ५ ( द्वि० उ०) श्लोक ८-१० टि० १३-१७ : श्लोक : १४. कथा का प्रबन्ध न करे ( कहं च न पबंधेज्जा ग ) : कथा के तीन प्रकार हैं-धर्म-कथा, वाद-कथा और विग्रह- कथा । इस त्रिविध कथा का प्रबन्ध न करे। किसी के पूछने पर एक उदाहरण बता दे किन्तु चर्चाक्रम को लम्बा न करे । साधारणतया भिक्षु गृहस्थ के घर में जैसे बैठ नहीं सकता वैसे खड़ा खड़ा भी धर्म-कथा नहीं कह सकता । तुलना के लिए देखिए (३.२२-२४)। १५. लोक इस श्लोक में वस्तु-विवेक की शिक्षा दी गई है। मुनि को वस्तु का वैसा प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे लघुता लगे और चोट लगने का भी प्रसंग आए । इलोक १६. परिघ (फलिहं क ) : नगर-द्वार के किवाड़ को बन्द करने के बाद उसके पीछे दिया जाने वाला फलक । श्लोक १०: १७. कृपण (किवि ) इसका अर्थ 'पिण्डोलग' है । उत्तराध्ययन (५.२२ ) में 'पिण्डोलग' का अर्थ - 'पर-दत्त आहार से जीवन निर्वाह करने वाला'किया है । ४ १ (क)००० १२७ मिसिएम' णो पनि 'करवति' लिम-देवकुला। (ख) जि० चू० पृ० १६५ : गोयरग्गगएण भिक्खुणा णो णिसियव्वं कत्थइ घरे वा देवकुले वा सभाए वा पवाए वा एवमादि । २- जि० ० चू० पृ० १६६ : णण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा । जि० ० पृ० ११५-१६ जहा व न निसिएग्जा तहा डिओोऽवि धम्मकहाबादकहा- बिमाहादि णो 'पा' नाम कहेज्जइ । (ख) हा० टी० प० १८४ : 'कथां च' धर्मकथादिरूपां 'न प्रबध्नीयात्' प्रबन्धेन न कुर्यात्, अनेनैकव्याकरणंकज्ञातानुज्ञामाह, अत एवाह स्थित्वा कालपरिग्रहेण संयत इति, अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगादिति । (क) जि० सू० पृ० १९६ इमे दोसा कयाति दुबई पडेना, पतरस य संजमबिराहणा आयविराणा या होम्नसि । (ख) हा० टी० प० १४ साधयविराधनाशेषात् । Jain Education International ५- ( क ) अ० चू० पृ० १२७ : नगरद्दारकवाडोवत्थंभणं 'फलिहं' । (ख) हा० टी० प० १८४: परिघं ' नगरद्वारा दिसंबन्धिनम् । (क) अ० चू० पृ० १२७ : किवणा पिंडोलगा (ख) जि० चू० पृ० १६६ : किविणा- पिण्डोलगा । (ग) हा० टी० प० १८४ : 'कृपणं वा' पिण्डोलकम् । ७- उत्त० बू० वृ० प० २५० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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