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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३२६ अध्ययन ६ : श्लोक ५८ टि०८५-८६ ___ कोई वधक तीतर बेचने के लिए आया । गृहस्वामिनी मुनि के सामने लेने में सकुचाती है । वह वस्त्र मरोड़ने के व्याज से उसकी गर्दन तोड़ देने का संकेत जताती है और वह उस तीतर को असमय में ही मार डालता है--इस प्रकार अवधकाल में प्राणियों का वध होता है। टीका में 'पाणाणं च वहे वहां' ऐसा पाठ व्याख्यात है । इसका अर्थ है-गोचराग्र प्रविष्ट मुनि गृहस्थ के घर बैठता है तब उसके लिए भक्त-पान बनाया जाता है --इस प्रकार प्राणियों का वध होता है। भिक्षाचर घर पर मांगने जाते हैं। स्त्री सोचती है कि साधु से बात करते समय बीच में उठ इन्हें भिक्षा कैसे दूँ ? साधु को बुरा लगेगा, यह सोच वह उनकी ओर ध्यान नहीं देती। इससे भिक्षाचरों के अन्तराय होता है और वे साधु का अवर्णवाद बोलते हैं। स्त्री जब साधु से बातचीत करती है तब उसका पति, ससुर या बेटा सोचने लगता है कि यह साधु के साथ अनुचित बातें करती है । हम भूखे-प्यासे हैं, हमारी तरफ ध्यान नहीं देती और प्रतिदिन का काम भी नहीं करती । इस तरह घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है। श्लोक ५८ : ८५. ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है ( अगुत्ती बंभचेरस्स क ) स्त्री के अङ्ग-प्रत्यङ्गों पर दृष्टि गड़ाए रखने से और उसकी मनोज्ञ इन्द्रियों को निरखते रहने से ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है। ८६. स्त्री के प्रति भी शंका उत्पन्न होती है (इत्थीओ यावि संकणं ख ) : स्त्री के प्रफुल्ल वदन और कटाक्ष को देखकर लोग सन्देह करने लगते हैं कि यह स्त्री इस मुनि को चाहती है और वैसे ही मुनि के प्रति भी लोग सन्देह करने लगते हैं । इस तरह स्त्री और मुनि दोनों के प्रति लोग सन्देहशील बनते हैं । १-(क) अ० चू० पृ० १५५ : अबधे वधो-अवहत्याणे ओरतो । कहं ? अविरतियाए सहालवेंतस्स जीवंते तित्तिरए विक्केणुए उवणीए, कहं जीवंतमेतस्स पुरतो गेल्लामि त्ति वत्थद्धंतवलणसन्नाए गोवं वलावेति, एवं अवहे वधो संभवति । (ख) जि० चू० पृ० २२६-३० : पाणाण अवघे वहो भवति, तत्थ पाणा णाम सत्ता, तेसि अवधे वधो भवेज्जा, कहं ? सो तत्थ उल्लावं करेइ, तत्थ य तित्तिरओ...सो चितेति-कहमेतस्स अग्गओ जीवंतं गेण्हिस्सामि, ताहे ताए सण्णा कया, दसिया बलिया, आगलियं, सेवि जा गिण्हामि ताहे मारिज्जेज्जा, एवं पाणाण अवधे वधो भवति । २-हा० टी०प० २०५ : प्राणिनां च वधे वधो भवति, तथा संबन्धादाबाकर्मादिकरणेन । ३-जि० चू० पृ० २३० : तत्थ य बहवे भिक्खायरा एंति, सा चितेति -कहभेतस्स सगासाओ उठेहामित्ति अपत्तियं से भविस्सति, ताहे ते अतित्थाविज्जंति, तत्थ अंतराइयदोसो भवति, ते तस्स अवणं भासंति । ४-जि० चू०पू० २३० : समंता कोहो पडिकोहो, समंता नाम सम्वत्तो, तकारडकारलकाराणाभेगत्तमितिका पडिकोहो पढिज्जइ, सो य पडिकोधो इमेण पगारेण भवति ....जे तीए पतिससुरपुत्तादी ते अपडिगणिज्जमाणा मण्णेज्जा-एसा एतेण समणएण पंसुलाए कहाए अक्खित्ता अम्हे आगच्छमाणे वा भुक्खियतिसिए वा णाभिजाणइ, न वा अप्पणो णिच्चकरणिज्जाणि अणुढेइ, अतो पडिकोधो अगारिणं भवइ । ५-जि० चू० पृ० २३० : इत्थीणं अंगपच्चंगेसु दिदुनिवेसमाणस्स ईदियाणि मणुन्नाणि निरिवखंतस्स बंभवतं अगुत्तं भवइ । ६-जि० चू० पृ० २३० : इत्थी वा पप्फुल्लक्यणा कडक्खविक्खित्तलोयणा संकिजेज्जा, जहा एसा एवं कामयति, चकारेण तथा सुभणियसुरूवादीगुह उववेतं संकेज्जा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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