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महायारकहा (महाचारकथा)
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अध्ययन ६ : श्लोक ५६-६१ टि० ८७-६०
श्लोक ५६ :
८७. श्लोक ५६ :
पूणि और टीका के अनुसार अतिजराग्रस्त, अतिरोगी और घोर तपस्वी भिक्षा लेने के लिए नहीं जाते किन्तु जो असहाय होते हैं, जो स्वयं भिक्षा कर लाया हुआ खाने का अभिग्रह रखते हैं या जो साधारण तप करते हैं, वे भिक्षा के लिए जाते हैं। गृहस्थ के घर में स्वल्पकालीन विश्राम लेने का अपवाद इन्हीं के लिए है और वह भी ब्रह्मचर्य-विपत्ति आदि दोषों का सम्भव न हो, उस स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है।
श्लोक ६० :
८८. आचार ( आयारो ग ) :
इस श्लोक में आचार और संयम--ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं। 'आचार' का तात्पर्य कायक्लेश आदि बाह्य तप और 'संयम' का तात्पर्य अहिंसा-प्राणि-रक्षा है। ८६. परित्यक्त ( जतो घ): _ 'जढ' का अर्थ है परित्यक्त । हेमचन्द्राचार्य ने 'त्यक्त' के अर्थ में 'जढ' को निपात किया है। और षड्भायाचन्द्रिका में इसके अर्थ में 'जज' का निपात है।
श्लोक ६१:
६० श्लोक ६१:
सचित्त जल से स्नान करने में हिंसा होती है इसलिए उसका निषेध बुद्धिगम्य हो सकता है, किन्तु अचित्त जल से स्नान करने का निषेध क्यों ? सहज ही यह प्रश्न होता है। प्रस्तुत श्लोक में इसी का समाधान है।
१- (क) अ० चू० पृ० १५५ : अभिभूत इति अतिप्रपीडितो, एवं वाहितो वि, 'तवस्सी' पक्षमासातिखमण कलंतो एतेसि णेव
गोयराबतरणं । जस्स य पुण सहायासतीए अत्तलाभिए वा हिंडेज्जा ततो एतेसि निसेज्जा अणुण्णाता। (ख) जि० चू० पृ० २३०-३१ : जराभिभूओ 'वाहिअस्स तवस्सिणो' त्ति अभिभूयग्गहणं जो अतिकठ्ठपत्ताए जराए बज्जइ,
जो सो पुण वुड्ढभावेऽवि सति समत्थो ण तस्स गहणं कयंति, एते तिन्निवि न हिंडाविज्जति, तिन्नि हिंडाविज्जति सेधो
अत्तलाभिओ वा अविकिट्ठतवस्सी वा एवमादि, तिहि कारणेहि हिंडेज्जा, तेसि च तिण्हं णिसेज्जा अणुन्नाया। (ग) हा० टी० प० २०५ : 'जरयाऽभिभूतस्य' अत्यन्तवृद्धस्य 'व्याधिमत:' अत्यन्तमशक्तस्य 'तपस्विनो' विकृष्टक्षपकस्य ।
एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव, आत्मलब्धिकाद्यपेक्षया तु सूत्रविषयः । २-(क) अ० चू० पृ० १५५ : एतेसि बंभविबत्ति-वणीमगपडिघातातिजयणाए परिहरंताणं णिसेज्जा। (ख) जि० चू०प०२३१ : तत्थ थेरस्स बंभचेरस्स विवत्तीमादी दोसा नत्थि, सो मुहुत अच्छइ, जहा अन्तरातपडिघातादओ
दोसा न भवंति, वाहिओऽवि मग्गति किचि तं जाव निकालिज्जइ ताव अच्छइ, विस्समण? वा, तवस्सीवि आतवेण
किलामिओ विसमिज्जा। ३--(क) जि० चू० पृ० २३१ : आयारग्गहणेण कायकिलेसादिणो बाहिरतवस्स गहणं कयं ।
(ख) हा० टी०प० २०५ : 'आचारो' बाह्यतपोरूपः, 'संयमः' प्राणिरक्षणादिकः । ४–हा० टी०प० २०५ : 'जढः' परित्यक्तो भवति । ५. हैम० ४.२५८ : 'जढं'–त्यक्तम् । ६-षड्भाषाचन्द्रिका पृ० १७८ : त्यक्ते जडम् । ७ हा० टी० प० २०५ : प्रासुकस्नानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह ।
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