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________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३५४ अध्ययन ७: श्लोक १९-२२ टि०२२-२५ २२. गुण-दोष का विचार कर ( अभिगिज्म ") : ___'अभिगिज्झ' शब्द की तुलना आयारचूला ४।१० के 'अभिकख' शब्द से होती है । टीकाकार ने इसका अर्थ किया है --'अभिकाय - पर्यालोच्य' अर्थात् पर्यालोचन कर । प्रस्तुत श्लोक के 'अभिगिज्झ' शब्द का चूर्णिकार और टीकाकार दोनों को यही अर्थ अभिमत है। श्लोक १६: २३. श्लोक १६: हे ! और भो ! सामान्य आमंत्रण शब्द हैं । 'अण्णं' यह महाराष्ट्र में पुरुष के सम्बोधन के लिये प्रयुक्त होता था। 'भट्टि', 'सामि' और 'गोमि'—ये पूजावाची शब्द हैं । 'होल' प्रभुवाची शब्द है । 'गोल' और 'वसुल' युवा पुरुष के लिए प्रयुक्त प्रिय-शब्द हैं। श्लोक २१: २४. श्लोक २१: शिष्य ने पूछा-यदि पञ्चेन्द्रिय जीवों के बारे में स्त्री-पुरुष का सन्देह हो तो उनके लिए जाति शब्द का प्रयोग करना चाहिए तब फिर चतुरिन्द्रिय तक के जीव जो नपुंसक ही होते हैं, उनके लिये स्त्री और पुरुष लिङ्गवाची शब्दों का प्रयोग कैसे किया जा सकता है और यह जो प्रयोग किया जाता है, जैसे पुरुष स्त्री मुर्मुर पृथ्वी पत्थर मृत्तिका আন্ত करक उस्सा (अवश्याय) अग्नि ज्वाला वायु वात वातुली (वात्या) वनस्पति आम्र अंबिया द्वीन्द्रिय शंख शुक्ति त्रीन्द्रिय मत्कोटक पिपीलिका चतुरिन्द्रिय मधुकर मधुकरी क्या वह सही है ? आचार्य ने कहा--जनपद-सत्य और व्यवहार-सत्य भाषा की दृष्टि से यह सही है। शिष्य-तब फिर पंचेन्द्रिय के लिए भी ऐसा हो सकता है ? आचार्य-पंचेन्द्रिय में स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों होते हैं, इसलिए उनका यथार्थ निर्देश करना चाहिए । असंदिग्ध जानकारी के अभाव में सही निर्देश नहीं हो सकता इसलिए वहाँ 'जाति' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। श्लोक २२: २५. श्लोक २२ : इस श्लोक में मनुष्य, पशु, पक्षी और अजगर को स्थूल, प्रमेदुर, वध्य और पाक्य नहीं कहना चाहिए। उन्हें जो कहना है वह अगले श्लोक में प्रतिपाद्य है। १- (क) जि० चू० पृ० २५१ : अभिगिज्झ नाम पुब्वमेव दोसगुणे चितेऊण । (ख) हा० टी० प० २१६ : 'अभिगृह्म' गुणदोषानालोच्य। २--अ०० पृ० १६६ : हे भो हरेत्ति सामण्णमामंतणवयणं । 'अण्णं' इति मरहट्ठाणं । भट्टि सामिय गोमिया पूया वयणाणि । निसातिसु सव्वविभत्तिसु। होल इति पहुवयणं । गोल वसुल जुवाणप्रियवयणं। ३–हा० टी०प० २१७ : जइ लिंगवच्चए दोसो ता कोस पुढवादि नपुंसगत्तेवि पुरिसिथिनि सो पयट्टई, जहा पत्थरो मट्टिआ करओ उस्सा मुम्मरो जाला वाओ वाउली अंबओ अंबिलिया किमिओ जलूया मक्कोडओ कीडिआ भमरओ मच्छिआ इच्चेवमादि? आयरिओ आहे. जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एवं पयट्टइत्ति ण एत्थ दोसो पंचिदिएसु पण ण एयमंगीकीरईगोवालादीणविण सुदिधम्मत्ति विपरिणामसंभवाओ, पुच्छि असामायारिकहणे वा गुणसंभवादिति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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