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वक्कसुद्धि (वाक्यशुद्धि)
अध्ययन ७ : श्लोक २३ टि० २-३० २६. वध्य ( या वाह्य ) ( वज्झे ग ) :
शीलाङ्कसूरि ने 'वज्झ' शब्द के दो संस्कृत रूप दिए हैं -वध्य और वाह्य । इनका क्रमशः अर्थ होता है-वध करने योग्य और वहन करने योग्य' ।
अगस्त्य धूणि में मनुष्य की वध्यता के लिए पुरुष-मेध का उदाहरण दिया गया है । २७. पाक्य (पाइमेघ) :
टीकाकार ने इसका मूल अर्थ पकाने योग्य तथा मतान्तर के अनुसार काल-प्राप्त किया है। शीलाङ्कसरि ने इसके दो अर्थ किए हैं पचन-योग्य और पातन-योग्य - देवता आदि के बलि देने योग्य ।
श्लोक २३ :
२८. श्लोक २३ :
पूर्वोक्त श्लोक में स्थूल आदि जिन चार शब्दों के प्रयोग का निषेध किया है उनकी जगह आवश्यकता होने पर परिवृद्ध आदि शब्दों के प्रयोग का विधान इस इलोक में किया गया है ।
अवाच्य
वाच्य स्थूल
परिवृद्ध प्रमेदुर
उपचित वध्य या वाह्य
संजात और प्रीणित पाक्य
महाकाय आयारचूला ४।२५ में स्थूल आदि के स्थान पर परिवृद्ध-काय, उपचित-काय, स्थिर-संहनन, चित-मांस-शोणित और बहुप्रतिपूर्णेन्द्रिय शब्दों के प्रयोग का विधान है।
२६. परिवृद्ध ( परिवुड्ढे क )
हरिभद्रसूरि ने इसका संस्कृत रूप 'परिवृद्ध' किया है और शीलाङ्कसूरि भी आयारचूला ४१२६ वृत्ति में इसका यही रूप मानते हैं । प्राकृत व्याकरण के अनुसार भी वृद्ध का बुड्ढ रूप बनता है। धूणियों तथा कुछ प्राचीन आदर्शों में परिवूढ' ऐसा पाठ मिलता है।
उत्तराध्ययन (७. २, ६) में 'परिवूढ' शब्द का प्रयोग हुआ है। शान्त्याचार्य ने इसका संस्कृत रूप परिवढ' और इसका अर्थ 'समर्थ' किया है।
उपाध्याय कमलसंयम ने एक स्थल पर उसका संस्कृत रूप 'परिवृढ' और दूसरे स्थल पर 'परिवृद्ध' किया है । ३०. उपचित ( उचिए ख ):
मांस के उपचय से उपचित ।
१-आ० चू० ४।२५ वृ० : वध्यो वहनयोग्यो वा । २--- अ० चू० पृ० १७० : तत्थ मणुस्सो पुरिसमेधादिसु । ३- हा० टी०प० २१७ : 'पाक्य:' पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये । ४–आ० चू०४।२५ वृ० : पचनयोग्यो देवतादेः पतनयोग्यो वेति । ५-हैम० ८.२.४४ : दग्धविदग्ध-वृद्धि वृद्धेः ढः । ६- उत्त० बृ० वृ० पत्र २७३, २७४ । ७–उत्त० स० पत्र १५८-१५६ । ८-अ० चू० पृ० १७० : उवचितो मंसोवचएण।
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