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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ४०. पूरा न उबला हुआ गर्म ( तत्सनिष्टं ) : पूर्णि और टीका में रात-निन्दु' के 'सप्तनित और इन दो संस्कृत रूपों के अनुसार अर्थ किए गए हैं जो ज 1 गर्म होकर फिर से शीत हो गया हो - विभिन्न काल मर्यादा के अनुसार सचित हो गया हो वह तप्त निर्ऋत कहलाता है । जो जल थोड़ा गर्म किया हुआ हो वह तप्त अनि त कहलाता है' । पक्व जल वही माना जाता है जो पर्याप्त मात्रा में उबाला गया हो। देखिए इसी सूत्र (३.६) की टि० संख्या ३६ । २८२ अध्ययन ५ ( द्वि० उ० ) : श्लोक उ०) श्लोक २२ टि ४०-४२ ४१. जल ( वियडं ख ) : मुनि के लिए अन्तरिक्ष और जलाशय का जल लेने का निषेध है । वे अन्तरिक्ष और जलाशय का जल लेते भी हैं किन्तु वही, जो दूसरी वस्तु के मिश्रण से विकृत हो जाए । स्वाभाविक जल सजीव होता है और विकृत जल निर्जीव मुनि के लिए विकृत जल ( या इक्कीस प्रकार का द्राक्षा आदि का पानक । देखिए आयारचुला १) ही ग्राह्य है । इसलिये अङ्ग साहित्य में बहुधा 'वियर्ड' शब्द का प्रयोग जल के अर्थ में भी होता है । अभयदेवसूरि ने वियड का अर्थ 'पानक' किया है । 'वियड' शब्द का प्रयोग शीतोदक और उष्णोदक दोनों के साथ होता है । अगस्त्य सिंह स्थविर 'वियड' का अर्थ गर्म जल करते हैं। जिनदास णि और टीका में इसका अर्थ शुद्धोदक किया है । ४२. पोई - साग और सरसों की खली ( पूइपिन्नागं ग ) : अगस्त्य चूर्णि के अनुसार 'पूर पिन्नागं' का अर्थ है-सरसों की पिट्ठी । जिनदास महत्तर सरसों के पिंड (भोज्य ) को 'पूइ पिन्नागं' कहते हैं। टीकाकार ने इसका अर्थ सरसों की खली किया है। आयारचूला में भी 'पूइ पिन्नाग' शब्द प्रयुक्त हुआ है। वहाँ वृत्तिकार ते इसका अर्थ कुथित की खली किया है " सूत्रकृताङ्ग के वृत्तिकार ने 'पिण्याक' का अर्थ केवल खली किया है" । सुश्रुत ' में 'पिण्याक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। व्याख्या में उसका अर्थ तिल, अलसी, सरसों आदि की खली किया है" । उस स्थिति में 'पूइ पिन्नाग' का अर्थ सरसों की खली करना चिन्तनीय है । शालिग्राम निघण्टु ( पृ० ८७३) के अनुसार 'पूइ' एक प्रकार का साग है। संस्कृत में इसे उपोदकी या पोदकी कहते हैं । हिन्दी में इसका नाम पोई का साग है । बंगला में इसे पूइशाक कहते हैं । पूइ और पिन्नाग को पृथक् मानकर व्याख्या की जाए तो पूइ का अर्थ पोई और पिण्याक का अर्थ सरसों आदि की खली किया जा सकता है । १-- (क) अ० चू० पृ० १३० : तत्तनित्वुद्धं सीतलं पडिसचितीभूतं अणुव्वत्तदंडं वा । - (ख) हा० टी० प० १८५: तप्तनिर्वृतं क्वथितं सत् शीतीभूतम्, तप्तनिवृतं वा अप्रवृत्तत्रिदण्डम् । २-- ठा० ३।३४६ : णिग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स कप्पंति तओ वियडदत्तीओ पडिग्गाहित्तते । ३ - ठा० ३।३४६ वृ० : 'वियड' त्ति पानकाहारः । ४-आ० चू० ६।२४ : 'सिओदगविथडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा' । ५- अ० चू० पृ० १३० : वियडं उन्होयगं । ६ (क) जि० [० चू० पृ० १६८ : सुद्धमुदयं वियडं भण्णइ । (ख) हा० टी० प० १८५: विकटं वा शुद्धोदकम् । ७५० सू० पृ० १३० पूतिनाम सरिसवपि । Jain Education International ८ जि० चू० पृ० १६८: ६ हा० टी० ए० १०५ १० आ० पू० १।११२० ११ – सू० २.६.२६ प० ३६६ वृ० : 'पिण्याक : ' खलः । १२- गु० (सू०) ४६.३२१ "पिण्याकतिलककाकानि सर्व्वदोषप्रकोपणानि । 'पूतियं' नाम सिद्धथपिंडगो, तत्थ अभिन्ना वा सिद्धत्थगा भोज्जा, दरभिन्ना वा । पूतिविन्याक' सर्वपलम् । प्रतिपित्तावन्ति कुवितम्। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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