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________________ विजय समाही (विनय-समाधि ) ६- जो पाय जलियमकमेज्जा आसविसं वा विहु कोवएज्जा । जो वा विसं खाय जीविषट्ठी एसोवमासायण या गुरूणं ॥ ७- सियाह से पावय नो व्हेजा सीविसो वा कविओ न भक्ते । सिया विसं हालहलं न मारे न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥ ८- जो पचयं सिरसा नेतुमिच्छे सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा । जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं एसोमासायणया गुरुणं ॥ २- सियाह सीसेण गिरि पिभि सियाह सीहो कुविओ न भक्ते । सिया न भिदेज्ज व सत्तिअग्गं न यावि सोक्लो गुरुहीलणाए ॥ १० - आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहियासायण नत्यि पोपलो तम्हा अणावाहमुहाभिकंखी गुरुसायाभिमु रमेज्जा | ११- जहाहिबग्गी जस नमसे नाणाहूईमंतपयाभिसि 1 एवायरियं उचिटुएन्जा अनंतनागोबगओ वि संतो ॥ १२ - जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्वे तस्संतिए वेणइयं पजे | सक्कारए सिरसा पंजलीओ कार्यग्गिरा भी मणसा य निपचं ॥ Jain Education International ४२८ यः पावकं तामेत कोपयेत्। आदि वाऽपि यो वा वि लावति जीता योगमाया गुरुणाम् ॥६॥ " स्याद् खलु स पावको नो दहेत्, आशीविषो वा कुपितो न भक्षेत् । पहिला न मारयेत् न चापि मोक्षो गुरुहीसमया ॥2॥ यः पर्वतं शिरसा भेतुमित् सुप्त वा सिंह प्रतिबोधयेत् । यो वा ददीत शक्त्य प्रहार, एषोपमाशातनया गुरूणाम् ||८|| स्वात् खलु शिण गिरिमि स्यात् सिंहः कुपितो स्यान्न भिन्द्याद्वा शक्त्यग्रं, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ॥६॥ आचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः अबोधिमाशातनया नास्ति मोक्षः । तस्मादनाबाधसुखाभिकांक्षी, गुरुप्रसादाभिमुखो रमेत ॥ १० ॥ यथाऽहनि नमस्वेद, नानाहृतिमन्त्रपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्थमुपतिष्ठेत अनजानोऽपि सन् ॥११॥ अध्ययन १ ( प्र० उ०) श्लोक ६-१२ : दिन शिक्षेत तस्थान्तिके वैनयिकं प्रयुञ्जीत । सत्कुर्वीत शिरसा प्राज्ञ्जलिकः, कायेन गिरा भो मनसा च नित्यम् ||१२|| For Private & Personal Use Only ६कोई जलती अग्नि को लांघता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है और जीवित रहने की इच्छा से विष खाता है, गुरु की आशातना इनके समान है-ये जिस प्रकार हित के लिए नहीं होते, उसी प्रकार गुरु की आशातना हित के लिए नहीं होती । ७- सम्भव है कदाचित् अग्नि न जलाए, सम्भव है आशीविष सर्प कुपित होने पर भी न खाए और यह भी सम्भव है कि हलाहल विष भी न मारे, परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष सम्भव नहीं है। ८- कोई शिर से पर्वत का भेदन करने की इच्छा करता है, सोए हुए सिंह को जगाता है और भाले की नोक पर प्रहार करता है, गुरु की आशातना इनके समान है। ९- सम्भव है शिर से पर्वत को भी भेद डाले, संभव है सिंह कुपित होने पर भी न खाए और यह भी संभव है कि भाले की नोक भी भेवन न करे, पर रुकी अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है । १० - आचार्यपाद के अप्रसन्न होने पर बोधि-लाभ नहीं होता । आशातना से मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए मोक्षसुख चाहने वाला मुनि गुरु कृपा के अभिमुख रहे। ११ - जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण १५ विविध आहुति और मन्त्रपदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्तज्ञान- सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की पूर्व सेवा करे। १२- जिसके समीप धर्मों की शिक्षा लेता है उसके समीप विनय का प्रयोग करे । शिर को झुकाकर हाथों को जोड़कर (पञ्चाङ्ग वन्दन कर) काया, वाणी और मन से सदा सत्कार करे । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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