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________________ विणयसमाही (पढमी उद्देसो) : विनय-समाधि ( प्रथम उद्देशक ) मूल १ - थंभा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विजयं न सिक्खे' । सो चेव उ तस्स अभूइभावो फलं व कोयस्स वहाय होइ ॥ २- जे यावि मंदित्ति गुरुं विइत्ता डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा । होलंति मिं पडिवजमाणा करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ ३ – पगईए मंदा वि" भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया । आवारमता गुणसुट्टप्पा जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा ॥ ४ - जे यावि नागं डहरं ति नच्चा आसाय से अहियाय होइ । एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे ॥ ५ - "आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो कि जीवनासाओ परं नु कुज्जा । आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अवोहिआसायण नत्थि मोक्यो । नवमं अज्झयणं : नवम अध्ययन Jain Education International संस्कृत छाया स्तम्भाद्वा क्रोधाद्वा मायाप्रमादात् गुरु-सका विनयं न शिक्षेत । स चैव तु तस्याभूतिभावः, फलमिव कीचकस्य वधाय भवति ॥ १॥ ये चापि " मन्द" इति गुरु विदित्वा "डहरो "sयं "अल्पश्रुत" इति ज्ञात्वा । हीलयन्ति मिथ्या प्रतिपद्यमानाः कुर्वन्प्राशातनां ते गुरूणाम् ||२|| प्रकृत्या मन्दा अपि भवन्ति एके, डहरा अपि च ये श्रुत-बुद्ध्युपेताः । आचारवन्तो गुणसुस्थितात्मानः, ये हीलिताः शिखीव भस्म कुर्युः || ३|| ये चापि नाग डहर इति ज्ञात्वा, आशातयेपुः तस्याहिताय भवति । एवमाचार्यमपि खलु होलयन्, निर्गच्छति जातिपथं खलु मन्दः || ४ | आशीविषश्चापि परं सुरुष्टः, कि जीवनाशात् परं न कुर्यात् । आचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः अबोधिमाशातनया नास्ति मोक्षः ||५|| For Private & Personal Use Only हिंदी अनुवाद १ - जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की अशिक्षा) उसके विनाश के लिए होती है, जैसे कीचक (ate) का फल उसके यथके लिए होता है। २ - जो मुनि गुरु को ये मंद 'ये अल्पवयस्क और (अ) है, ये अल्प श्रुत हैं, ' - ऐसा जानकर उनके उपदेश को मिथ्या मानते हुए उनकी अवहेलना करते हैं, वे गुरु की आशातना करते हैं । ३- कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मन्द ( अल्प-प्रज्ञ ) होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न " होते हैं। आचारवान् और गुणों में मुस्थितात्मा आचार्य भने फिर वे मन्द हों या प्राज्ञ, अवज्ञा प्राप्त होने पर गुणराशि को उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं जिस प्रकार अग्नि ईंधन राशि को । ४ जो कोई यह वर्ष छोटा है ऐसा जानकर उसकी आशातना ( कदर्थना) करता है, वह (सर्प) उसके अहित के लिए होता है । इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्द संसार में" परिभ्रमण करता है । ५. - आशीविष सर्प १४ अत्यन्त क्रुद्ध होने पर भी 'जीवन-नाश' से अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु आचार्यपाद अप्रसन्न होने पर अबोधि के कारण बनते हैं । अतः आशातना से मोक्ष नहीं मिलता । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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