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महायारकहा ( महाचारकथा )
३२६ इसको घ्राणेन्द्रिय का विषय बतलाया है'। उससे भी इसका गन्ध द्रव्य होना प्रमाणित है । मोनियर-मोनियर विलियम्स ने भी अपने संस्कृत- अंग्रेजी कोष में इसका एक अर्थ सुगन्धित चूर्ण किया है ।
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८. कल्क ( कक्कं ):
इसका अर्थ स्नान द्रव्य, विलेपन द्रव्य अथवा गन्धाट्टक - गन्ध-द्रव्य का आटा है। प्राचीन काल में स्नान में सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग किया जाता था । स्नान से पहले तेल-मर्दन किया जाता और उसकी चिकनाई को मिटाने के लिए पिसी हुई दाल या आंवले का सुगन्धित उबटन लगाया जाता था। इसी का नाम कल्क है । इसे चूर्ण कषाय भी कहा जाता है ।
६६. लोध्र ( लोद्धं क ) :
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सोध (गन्यद्रव्य) का प्रयोग ईषत् पाण्डुर छवि करने के लिए होता था 'मेघदूत' के अनुसार लोध-नुष्य के पराग का प्रयोग मुख की पाण्डुता के लिए होता था । 'कालिदास का भारत' के अनुसार स्नान के बाद काला-गुरु, लोध्र रेगु, धूप और दूसरे सुवासित द्रव्यों (कोषेय) के सुगन्धमय धूप में केश सुखाए जाते थे। 'प्राचीन भारत के प्रसाधन" के अनुसार लोध्र ( पठानी लोध ) वृक्ष की छाल का चूर्ण शरीर पर, मुख्यतः मुख पर लगाया जाता था। इसका रंग पाण्डुर होता है और पसीने को सुखाता है। संभवतः इन्हीं दो गुणों के कारण कवियों को यह प्रिय रहा होगा। इसका उपयोग श्वेतिमा गुरण के लिए ही हुआ है। स्वास्थ्य की दृष्टि से सुश्रुत में लोध्र के पानी से मुख को धोना कहा है। लोध्र के पानी से मुख धोने पर झांई, फुंसी, दाग मिटाते हैं।
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लोध के वृक्ष बंगाल, आसाम और हिमालय तथा खसिया पहाड़ियों में पाए जाते हैं। यह एक छोटी जाति का हमेशा हरा रहने बल होता है। इसके अंडाकृति और कंगूरेदार होते हैं इसके फूल पीने रंग के और सुगन्धित होते हैं। इसके प्रायः आधा इंच लम्बा और अंडाकृति का फल लगता है। यह फल पकने पर बैंगनी रंग का होता है। इस फल के अन्दर एक कठोर गुठली रहती है । उस गुठली में दो-दो बीज रहते हैं। इसकी छाल गेरुए रंग की और बहुत मुलायम होती है। इसकी छाल और पत्तों में से रंग निकाला जाता है ।
(क) प्र० प्र०४३ स्नानारागतिकवर्णकाधिवासपवासः । गन्धमितमनस्को मधुकर इव नाशमुपयाति ॥
(ख) प्र० प्र० ४३ अव० : स्नानमङ्गप्रक्षालनं चूर्णम् ।
A Sanskrit English Dictionary. Page 1266: Anything used in ablution (e.g. Water, Perfumed Powder)
३ (क) अ० ० ५० १५६
महासंयोग था।
(ख) जि० चू० पू० २३२ : कक्को लवन्तयो कीरइ, वण्णादी कक्को वा, उव्वलयं अट्टगमादि कक्को भण्णइ ।
४ (ड) अ० ० ० १५६ लोड कसापादि अदुरच्छविकरणत्वं विरजति ।
(ख) हा० टी० प० २०६ सोध्यम् ।
५- मेघ० ० २ हस्ते सीतामलमल बालकुन्दानुविद्ध',
नीता लोप्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः। चूदापाणे नवकुरव चाकर्मी शिरीगं सीमन्ते च त्वदुपगमनं यत्र न बधूनाम् ॥
अध्ययन ६ श्लोक ६३ टि० ६८-६९ :
६- कालीदास का भारत पृ० ३२० ।
७- प्राचीन भारत पृ० ७५ ।
८- सु० चि० २४.८ भिल्लोदककषायेण तथैवामलकस्य वा ।
नेत्रे स्वस्थः शीतोदकेन वा ॥
प्रशासये नीलिकां मुखशोषं च पिडकां व्यंगमेव च । रक्तपितकृतान् रोगान् सद्य एव विनाशयेत् ॥
६ - ० चं० भा० ९ पृ० २२१० ।
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