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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ६ : श्लोक ६४ टि० १००-१०२
१००. पद्म-केसर ( पउमगाणि ख ):
__ अगस्त्य चूणि' के अनुसार 'पद्मक' का अर्थ 'पद्म-केसर' अथवा कुंकुम, टीकाकार के अनुसार उसका अर्थ कुंकुम और केसर तथा जिनदास चूणि के अनुसार कुंकुम है । सर मोनियर-मोनियर विलियम्स ने भी इसका अर्थ एक विशेष सुगन्धित द्रव्य किया है।
___ 'पद्मक' का प्रयोग महाभारत में मिलता है-तुलाधार ने जाजलि से कहा- "मैंने दूसरों के द्वारा काटे गए काठ और घास-फूस से यह घर तैयार किया है । अलक्तक ( वृक्ष-विशेष की छाल ), पद्मक ( पद्ममाख ), तुङ्गकाष्ठ तथा चन्दनादि गन्ध-द्रव्य एवं अन्य छोटीबड़ी वस्तुओं को मैं दूसरों से खरीद कर बेचता हूँ।" सुश्रुत में भी इसका प्रयोग हुआ है---न्यग्रोधादि गण में कहे आम्र से लेकर नन्दी वृक्ष पर्यन्त वृक्षों की त्वचा, शङ्ख, लाल चन्दन, मुलहठी, कमान, गैरिक, अंजन ( सुरमा ), मंजीठ, कमलनाल, पद्ममाख–इनको बारीक पीसकर, दूध में घोलकर, शर्करा-मधु मिलाकर भली प्रकार छानकर ठण्डा करके जलन अनुभव करते रोगी को बस्ति दे ।
श्लोक ६४:
१०१. नग्न ( नगिणस्स क ):
चणिद्वय में 'नगिण' का अर्थ नग्न किया है। टीका में उसके दो प्रकार किए हैं-औपचारिक नग्न और निरुषचरित नग्न । जिनकल्पिक वस्त्र नहीं पहनते इसलिए वे निरुपचरित नग्न होते हैं। स्थविर-कल्पिक मुनि वस्त्र पहनते हैं किन्तु उनके वस्त्र अल्प मूल्य वाले होते हैं, इसलिए उन्हें कुचेलवान् या औपचारिक नग्न कहा जाता है।
१०२. दीर्घ रोम और नख वाले ( दोहरोमनहसिणो ख ):
स्थविर-कल्पिक मुनि प्रमाणयुक्त नख रखते हैं जिससे अन्धकार में दूसरे साधुओं के शरीर में वे लग न जाएं। जिन-कल्पिक मुनि के नख दीर्घ होते हैं । अगस्त्य धूणि से विदित होता है कि नखों के द्वारा नख काटे जाते हैं किन्तु उनके कोण भलीभाँति नहीं कटते इसलिए वे दीर्घ हो जाते हैं।
१-अ० चू० पृ० १५७ : 'पउमं' पउमकेसरं कुंकुम वा। २---हा० टी० प० २०६ : 'पद्मकानि च' कुंकुमकेसराणि । ३–जि० चू० पृ० २३२ : पउमं कुंकुम भण्णइ । 8-A Sanskrit English Dictionary. Page 584 : Padmaka--A Particular fragrant Substance. ५- महा० शा० अ० २६२. श्लोक ७ : परिच्छिन्नैः काष्ठतृणैर्मयेदं शरणं कृतम् ।
अलक्तं पद्मकं तुङ्ग गन्धाश्चोच्चावचांस्तथा । ६---सु० उत्तरभाग. ३६.१४८ : आम्रादीनां त्वचं शङ्ख चन्दनामलकोत्पलः॥
गरिकाञ्जनमञ्जिष्ठामृणालान्यथ पद्मकम् ।
श्लक्ष्णपिष्टं तु पयसा शर्करामधुसंयुतम् ॥ ७-(क) अ० चू० पृ० १५७ : ‘णगिणो' णग्गो।
(ख) जि० चू० पृ० २३२ : णगिणो–णग्गो भण्णइ । ८-हा० टी० ५० २०६ : 'नग्नस्य वापि' कुचेलवतोऽप्युपचारनग्नस्य निरुपचरितस्य नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रम् । -हा० टी० प० २०६ : 'दीर्घरोमनखवतः' दीर्घरोमवतः कक्षादिषु दीर्घनखवतो हस्तादौ जिनकल्पिकस्य, इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता
एव नखा भवन्ति यथाऽन्यसाधूनां शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति । १०–अ० चू० पृ० १५७ : दोहाणि रोमाणि कक्खादिसु जस्स सो दोहरोमो, आश्री कोटी, गहाणं आत्रीयो णहस्सीयो, कहा
जदि वि पडिणहादीहि अतिदीहा कप्पिज्जंति तहवि असंठविताओ णहथूराओ दीहाओ भवंति । दोहसदो पत्तेयं भवति, दीहाणि रोमाणि णहस्सीयो य जस्स सो दोहरोमणहस्सी तस्स ।
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