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महायारकहा (महाचारकथा)
३३१ अध्ययन ६ : श्लोक ६७-६८ टि० १०३-१०७
श्लोक ६७ १०३. अमोहदर्शी ( अमोहदंसिणो क ):
मोह का अर्थ विपरीत है । अमोह इसका प्रतिपक्ष है । जिसका दर्शन अविपरीत है उसे अमोहदर्शी कहते हैं। १०४ शरीर को ( अप्पाणं क):
'आत्मा' शब्द शरीर और जीव-इन दोनों अर्थों में व्यवहृत होता है। मृत शरीर के लिए कहा जाता है कि इसका आत्मा चला गया - आत्मा शब्द का यह प्रयोग जीव के अर्थ में है। यह कृशात्मा है, स्थूलात्मा है...-आत्मा शब्द का यह प्रयोग शरीर के अर्थ में है। प्रस्तुत श्लोक में आत्मा शब्द शरीर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। शरीर अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ कार्मण शरीर का अधिकार है। कार्मण शरीर -सूक्ष्म शरीर को क्षय करने के लिए तप किया गया है तब औदारिक शरीर-स्कूल शरीर स्वयं कृश हो जाता है अथवा औदारिक शरीर को तप के द्वारा कृश किया जाता है तब कार्मण शरीर स्वयं कृश हो जाता है।
श्लोक ६८ १०५. आत्म-विधायुक्त ( सविज्जविज्जाणुगया ख ):
'स्वविद्या' का अर्थ अध्यात्म-विद्या है । 'स्व विद्या' ही विद्या है, उससे जो अनुगत –युक्त है उसे 'स्वविद्याविद्यानुगत' कहते हैं । यह अगस्त्य चुणि की व्याख्या है । जिनदास महत्तर विद्या शब्द के पुन: प्रयोग को लौकिक-विद्या का प्रतिषेध करने के लिए ग्रहण किया हुआ बतलाते हैं । टीकाकार ने 'स्वविद्या' को केवल ज्ञान या श्रुत-ज्ञान रूप माना है। १०६. शरत् ऋतु के ( उउप्पसन्ने ग):
___सब ऋतुओं में अधिक प्रसन्न ऋतु शरद् है । इसलिए उसे 'ऋतु प्रसन्न' कहा गया है । इसका दूसरा अर्थ—प्रसन्न-ऋतु भी किया जा सकता है। १०७. चन्द्रमा ( चंदिमा " ):
घृणि और टीका में 'चंदिमा' का अर्थ 'चन्द्र' किया है । प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'चंदिमा' का संस्कृत रूप चन्द्रिका होता है।
१ .... (क) अ० चू० पृ० १५७ : मोहं विवरीयं, ण मोहं अमोहं पस्संति अमोहदंसिणो।
(ख) जि० चू० पृ० २३३ : अमोहं पासंतित्ति अमोहदंसिणो सम्मदिट्ठी.....। २ ---(क) अ० चू० पृ० १५७ : 'अप्पाणं' अप्पा इति एस सद्दो जीवे सरीरे य दिठ्ठप्रयोगो, जीवे जधा मतसरीरं भण्णति-गतो
सो अप्पा जस्सिम सरीरं, सरीरे-थूलप्पा किसप्पा, इह पुण तं खविज्जति, त्ति अप्पवयणं सरीरे ओरालियसरीरखवणेण
कम्मणं वा सरीरखवणमिति, उभयेणाधिकारो। (ख) जि० चू० पृ० २३३ : आह—कि ताव अप्पाणं खति उदाहु सरीरंति ?, आयरिओ भणइ-अप्पसदो दोहिवि दीसइ
सरीरे जीवे य, तत्थ सरीरे ताव जहा एसो संतो दोसई मा णं हिंसहिसि, जीवे जहा गओ सो जीवो जस्सेयं सरीरं, तेण भणितं खवेति अप्पाणंति, तत्थ सरीरं औदारिक कम्मगं च, तत्थ कम्मएण अधिगारो, तस्स य तवसा खए कीरमाणे
औदारियमवि खिज्जइ। ३-अ० चू० पृ० १५८ : सविज्जविज्जाणुगता 'स्व' इति अप्पा, 'विज्जा' विन्नाणं, आत्मनि विद्या सविज्जा अज्झप्पविज्जा,
विज्जागाणातो सेसिज्जति, अज्झप्पविज्जा जा विज्जा ताए अणुगता सविज्जविज्जाणुगता। ४-जि० चू० पृ० २३४ : बीयं विज्जागहणं लोइयविज्जापडिसेहणत्थं कतं । ५-हा० टी०प० २०७ : स्वविद्या-परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा। ६-अ० चू० पृ० १५८ : उडू छ, तेसु पसन्नो उडुप्पसण्णो, सो पुण सरदो, अहवा उडू एव पसण्णो । ७- (क) अ० चू० पृ० १५८ : चन्द्रमा चन्द्र इत्यर्थः ।
(ख) जि० चू० पृ० २३४ : जहा सरए चंदिमा विसेसेण निम्मलो भवति ।
(ग) हा० टी० प० २०७ : चन्द्रमा इव विमलाः । ८-हैम० ८.१.१८५: चन्द्रिकायां मः ।
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