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महायारकहा (महाचारकथा)
अध्ययन ६ : श्लोक २२ टि०४५-४६
४५. ( जा य ):
___ दोनों धूणियों में' 'जा य' (या च) और टीका में 'जाव' (यावत्) पाठ मानकर व्याख्या की है। ४६. एक बार भोजन ( एगभत्त' च भोयणं घ ) :
अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'एक-भक्त-भोजन' का अर्थ एक बार खाना अथवा राग-द्वेष रहित भाव से खाना किया है । उक्त वाक्यरचना में यह प्रश्न शेष रहता है कि एक बार कब खाया जाए? इस प्रश्न का समाधान दिवस शब्द का प्रयोग कर जिनदास महतर कर देते हैं । टीकाकार द्रव्य-भाव की योजना के साथ चूर्णिकार के मत का ही समर्थन करते हैं ।
काल के दो विभाग हैं-दिन और रात । रात्रि-भोजन श्रमण के लिए सर्वथा निषिद्ध है। इसलिये इसे सतत तप कहा गया है। शेष रहा दिवस-भोजन । प्रश्न यह है कि दिवस-भोजन को एक-भक्त-भोजन माना जाए या दिन में एक बार खाने को? धुणिकार और टीकाकार के अभिमत से दिन में एक बार खाना एक-भक्त-भोजन है। आचार्य वट्टकेर ने भी इसका अर्थ यही किया है
उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झव्हि। एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥
(मूलाचार --मूल गुणाधिकार ३५) 'सूर्य के उदय और अस्त काल की तीन घड़ी छोड़कर या मध्यकाल में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना, यह एक-भक्त-मूल मूल-गुण है।'
स्कन्दपुराण को भी इसका यही अर्थ मान्य है । महाभारत में वानप्रस्थ भिक्षु को एक बार भिक्षा लेनेबाला और एक बार भोजन करने वाला कहा है । मनुस्मृति और वशिष्ठ स्मृति में भी एक बार के भोजन का उल्लेख मिलता है। उत्तराध्ययन (२७.१२) के अनुसार सामान्यत: एक बार तीसरे पहर में भोजन करने का क्रम रहा है। पर यह विशेष प्रतिज्ञा रखने वाले श्रमणों के लिए था या सबके लिए इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु आगमों के कुछ अन्य स्थलों के अध्ययन से पता चलता है कि यह क्रम सबके लिए या सब स्थितियों में नहीं रहा है। जो निर्ग्रन्थ सूर्योदय से पहले आहार लेकर सूर्योदय के बाद उसे खाता है वह "क्षेत्रातिकान्त पान-भोजन है° । निशीथ (१०.३१-३९) के 'उग्गय वित्तीए' और 'अणथमियमणसंकप्पे' इन दो शब्दों का फलित यह है कि भिक्ष का भोजन-काल सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच का कोई भी काल हो सकता है। यही आशय दशवकालिक के निम्न श्लोक में मिलता है
अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्या य अणुग्गए। आहारमइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ॥ (८.२८)
१-(क) अ० चू० पृ० १४८ : जा इति वित्ती-उद्देसवयणं चकारी समुच्चये।
(ख) जि० चू० पृ० २२२ : 'जा' इति अविसेसिया, चकारो सावखे । २-हा० टी० ५० १६६ : यावल्लज्जासमा। ३- अ० चू० पृ० १४८ : एगवारं भोयणं एगस्स वा राग-दोसरहियस्स भोयणं । ४-जि० चू० पू० २२२ : एगस्स रागदोसरहियस्थ भोअणं अहवा इक्कवारं दिवसओ भोयगंति । ५-हा० टी० ५० १६६ : द्रव्यत एकम् -एकसंख्यानुगतं, भावत एकं कर्मबन्धाभावादद्वितीय, तदिवस एव रागादिरहितस्य
अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति ।। ६-दिनार्द्ध समयेऽतीते, भुज्यते नियमेन यत् ।
एक भक्तमिति प्रोक्तं, रात्रौ तन्न कदाचन ।। ७-महा० शा० २४५.६ : सकृदन्ननिषेविता । ८-म० स्मृ० ६.५५ : एककालं चरेद् भैक्षम् । है-व० स्मृ० ३.१६८ : ब्रह्मचर्योक्तमार्गेण सकृद्भोजनमाचरेत् । १०--भग० ७.१ सू० २१: गोयमा ! जे णं निग्गंथो वा निगंथी वा फासुएसणिज्ज असगं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा
अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहित्ता उग्गए सूरिए आहारं आहारेति, एस णं गहणेसणा? खेत्तातिकते पाणभोयणे ।
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