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दसवेलियं ( दशवेकालिक )
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शीत, उष्ण और मच्छर आदि से बचाव करना । प्रश्न व्याकरण में संयम के उपग्रह तथा वात, आतप, दंश और मच्छर से बचने के लिए उपधि रखने का विधान किया है।
४२. महब ( गणधर ) ने ( महेसिणा घ ) :
जिनदास महत्तर ने ‘महर्षि' का अर्थ गणधर या मनक के पिता शय्यंभव किया है और हरिभद्रसूरि ने केवल 'गणधर' किया है ।
श्लोक २१
अध्ययन ६ श्लोक २१-२२ टि० ४२-४४
:
४३. श्लोक २१
इस श्लोक का अर्थ दोनों घूर्णिकार एक प्रकार का करते हैं । अनुवाद उन्हीं की व्याख्या के अनुसार किया गया है। टीकाकार का अर्थ इससे भिन्न है । वे बुद्ध का अर्थ जिन नहीं, किन्तु तत्त्व वित् साधु करते हैं। जिनदास ने 'परिग्ग' को क्रिया माना है । टीकाकार ने 'परिग्गहे' को सप्तमी विभक्ति माना है । सर्वत्र का अर्थ वृद्धि में अतीत अनागत-काल और सर्व भूमि किया है। टीकाकार ने सर्वत्र का अभिप्राय उचित क्षेत्र और काल माना है । टीका के अनुसार इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार होता है उचित क्षेत्र और काल में आगमोक्त उपधि सहित, तत्त्वज्ञ मुनि छह जीवनिकाय के संरक्षण के लिए वस्त्र आदि का परिग्रहण होने पर भी उसमें ममत्व नहीं करते । और तो क्या, वे अपने देह पर भी ममत्व नहीं करते । "
श्लोक २२ :
४४. संयम के अनुकूल वृत्ति ( लज्जासना वित्ति ) :
यह वृत्ति का विशेषण है । लज्जा का अर्थ है संयम । मुनि की वृत्ति - जीविका संयम के अनुरूप या अविरोधी होती है इसलिए उसे " लज्जासमा" कहा गया है" ।
१ - ठा० ३.३४७ : तिहि ठाणेहिं वत्थं धरेज्जा, तंजहा -हिरिपत्तियं दुर्गुछापत्तित, परीसहवत्तियं ।
२ - प्रश्न ( संवरद्वार १ ) एयंपि संजमस्स उवग्गणाए वातातवदंस मसगसीय परि रक्खणट्ट्याए उबगरणं रागदोसरहितं परिहरियण्यं ।'
३ -- (क) जि० चू० पृ० २२१ : गणधरा मणगपिया वा एवमाहुः ।
(च) हा० टी० १० १२२ 'महर्षिणा' गणधरेण मुझे सेभव आहेति ।
४ – (क) अ० चू० पृ० १४८ : सन्वत्थ उवधिणा सह सोपकरणा, बुद्रा - जिगा । स्वाभाविकमिदं जिर्णालंयमिति सच्चे वि एग सेण निग्नता परियारश्यस्वे परिग्रहेण मुनिमिते मि मावि भगवंतो मुनी अपरिया पहुं भगवंत करकर धारिण्यति तंमि ? अनि अप्पो दि देहनि गाचरंति मनाइ
(ख) जि० चू० पृ० ५६० टी० १० १९९ ६- जि०
जि० ० ० २२२ हा० डी० ५० १६६ योगः ।
८००० २२१ स
भूमि
अतीतानागते ६-- हा० टी० प० १६६ : 'सर्वत्र' उचिते क्षेत्रे काले च ।
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२२२ :
बुढा' पचावहिदिसवस्तुतस्याः साधवः ।
संरक्खन परिहों' नाम जमरनिवितं परिमिति ।
'संरक्षणपरिग्रह' इति संरक्षणाय
जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिप सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति
१०- ( क ) अ० चू० पृ० १४८ : लज्जा -संजमो । लज्जासमा संजमाणुविरोहेण ।
(ख) हा० टी० प० १६६ : लज्जा संयमस्तेन समा सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनोत्यर्थः ।
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