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महायारकहा ( महाचारकथा )
अध्ययन ६ : श्लोक २० टि० ४१ शब्द अशास्त्रीय हैं जबकि दोनों के विचार शास्त्र-सम्मत हैं । भाषा और रचना-शैली की दृष्टि से यह प्रमाणित हो चुका है कि उपलब्ध जैन-साहित्य में आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) प्राचीनतम आगम है। उसकी चूला (आयार चुला) में मुनि को एक वस्त्र सहित, दो वस्त्र सहित आदि कहा है' । अन्य आगमों में मुनि की अवेन और सचेत्र --दोनों अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । जिनकल्ली मुनि के लिए शीत ऋतु बीत जाने पर अचेल रहने का भी विधान है । वास्तव में वस्त्र रखना या न रखना कोई विवाद का विषय नहीं है। परिस्थिति-भेद से सचेलता और अचेलता दोनों अनुज्ञात हैं। अचेल को उत्कर्ष-भाव और सचेल को अपकर्ष-भाव नहीं लाना चाहिए और न आपस में एक दूसरे की अवज्ञा करनी चाहिए--
जोऽवि दुवत्यतिवत्यो, एगेण अचेलगो व संथरइ । ण ह ते हीलंति परं, सव्वेऽपि य ते जिणाणाए ॥१॥ जे खलु विसरिसकप्पा, संघयणधिइयादिकारणं पप्प। णऽवमन्नइ ण य हीणं, अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥२॥ सव्वेऽवि जिणाणाए, जहाविहि कम्मखवणअट्ठाए।
विहरति उज्जया खलु, सम्म अभिजाणई एवं ॥३॥ (आचा० वृ० पत्र २२२) इन गाथाओं में समन्वय की भाषा का ज्वलन्त रूप है। आचार्य उमास्वाति (या उमास्वामी) को दोनों सम्प्रदाय अपना-अपना आचार्य मान रहे हैं। उन्होंने धर्म-देह रक्षा के निमित्त अनुज्ञात पिण्ड, शय्या आदि के साथ वस्त्रैषणा का उल्लेख किया है तथा कल्प्याकल्प्य की समीक्षा में भी बस्त्र का उल्लेख किया है। इसी प्रकार एषणा-समिति की व्याख्या में वस्त्र का उल्लेख है। स्थानाङ्ग में पाँच कारणों से अचेलता को प्रशस्त बतलाया है। वहाँ चौथे कारण को तप और पाँचवें कारण को महान् इन्द्रिय-निग्रह कहा है । संक्षेप में यही पर्याप्त होगा कि अवस्था-भेद के अनुसार अचेलता और सचेलता दोनों विहित हैं। परिग्रह का प्रश्न शेष रहता है । शब्द की दृष्टि से विचार किया जाए तो लेना मात्र परिग्रह है। स्थानांग में परिग्रह के तीन नाम बतलाए हैं –शरीर, कर्म-पुद्गल और भण्डोपकरण । बन्धन की दृष्टि से विचार करने पर परिग्रह की परिभाषा मूर्छा है। सूत्रकार ने इसे बहुत ही स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है । जीवन-यापन के लिए आवश्यक वस्त्र, पात्र आदि रखे जाते हैं वे संयम-साधना में उपकारी होते हैं इसलिए धर्मोपकरण कहलाते है । वे परिग्रह नहीं हैं । उनके धारण करने का हेतु मूर्छा नहीं है । सूत्रकार ने उनके रखने के दो प्रयोजन बतलाए हैं - संयम और लज्जा। स्थानाङ्ग में प्रयोजन का विस्तार मिलता है। उसके अनुसार वस्त्र-धारण के तीन प्रयोजन हैं-लज्जा, जुगुप्सा-निवारण और परीषह
१-आ० चू० ५।२ : जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंधयणे से एगं वत्थ धारिज्जा नो वीयं । २-उत्त०२.१३:
एगयाऽचेलए होइ, सचेले आवि एगया।
एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए । ३ -आ०८.५०-५३ : उवाइक्कते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्याइं परिढविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले
अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले । ४-प्र० प्र० १३८ :
पिण्डः शय्या वस्त्रैषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यन् ।
कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ।। ५-प्र० प्र०१४५:
किंचिच्छुद्ध कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् ।
पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्य वा ॥ ६-त० भा० ६.५ : अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य च उद्गमोत्पादनेषणादोषवर्जनम् -एषणा-समितिः । ७-ठा० ५.२०१ : पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तंजहा -अप्पा पडिलेहा, लाविए पसत्थे, रूवे वेसासिते, तवे
अणुन्नाते, विउले इंदियनिग्गहे । ८-ठा० ३.६५ : तिविहे परिग्गहे पं० २०–कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे ।
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