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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ६ :श्लोक २४-२८ टि०४७-५०
____ तात्पर्य यह है कि यदि केवल तीसरे पहर में ही भोजन करने का सार्वदिक विधान होता तो सूर्योदय या सूर्यास्त हुआ है या नहींऐसी विचिकित्सा का प्रसंग ही नहीं आता और न क्षेत्रातिकान्त पान-भोजन' ही होता, पर ऐसी विचिकित्सा की स्थिति का भगवती, निशीथ और बृहत्कल्प में उल्लेख हुआ है। इससे जान पड़ता है कि भिक्षुओं के भोजन का समय प्रातःकाल और सायं-काल भी रहा है। ओनियुक्ति में विशेष स्थिति में प्रात:, मध्याह्न और सायं-इन तीनों समयों में भोजन करने की अनुज्ञा मिलती है । इस प्रकार 'एकभक्त-भोजन' के सामान्यतः एक बार का भोजन और विशेष परिस्थिति में दिवस-भोजन-ये दोनों अर्थ मान्य रहे हैं। ४७. अहो नित्य तपः कर्म ( अहो निच्चं तवोकम्म क ) : जिनदास ने अहो शब्द के तीन अर्थ किए हैं :
(१) दीनभाव । (२) विस्मय।
(३) आमंत्रण। उनके अनुसार 'अह' शब्द यहाँ विस्मय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । टीकाकार का भी यही अभिमत है। आर्य-शय्यंभव या गणधरों ने इस नित्य-तप: कर्म' पर आश्चर्य अभिव्यक्त किया है। तपः कर्म का अर्थ तप का अनुष्ठान है।
श्लोक २४ : ४६. उदक से आई और बीजयुक्त भोजन ( उदउल्लं बीयसंसतं क ):
'उद उल्लं' के द्वारा स्निग्ध आदि (५.१.३३-३४ के) सभी शब्दों का संग्रहण किया जा सकता है।
'बीज' और 'संसक्त' शब्द की व्याख्या संयुक्त और वियुक्त दोनों रूपों में मिलती है। बीज से संसक्त ओदन आदि-यह संयुक्त व्याख्या है । 'बीज' और 'संसक्त'-किसी सजीव वस्तु से मिला हुआ कांजी आदि —यह इसकी वियुक्त व्याख्या है। ४६. ( महि ख ): यहाँ सप्तमी के स्थान में द्वितीया विभक्ति है।
श्लोक २८ : ५०. ( एयं):
टीकाकार ने 'एयं' का संस्कृत रूप 'एतत्' (५.१.११), 'एनं'६ (५.२.४६), 'एतं'१० (६.२५) और 'एवं'१ (६.२८) किया है।
१-- ओ०नि० गा०२५० भाष्य गा०१४८.१४६ । २-जि० चू० पृ० २२२ : अहो सट्टो तिसु अत्थेसु वट्टइ, तं जहा–दीणभावे विम्हए आमंतणे, तत्थ दीणभावे जहा अहो अहमिति,
जहा विम्हए अहो सोहणं एवमादी, आमंतणे जहा आगच्छ अहो देवदत्तात्ति एवमादि, एत्थ पुण अहो सद्दो विम्हए दृढव्वो। ३-हा० टी० ५० १६६ : अहो विस्मये। ४- अ० चू० पृ० १४८ : अज्जसेज्जभवो गणहरा वा एवमाहंसु-अहो निच्चं तवोकम्मं । ५-(क) अ० चू० पृ० १४८ : 'तबोकम्म' तवोकरणं ।
(ख) जि० चू० पृ० २२२ : णिच्चं नाम निययं, 'तबोकम्म' तवो कीरमाणो ।
(ग) हा० टी० पृ० १६६ : नित्यं नामायाणभावेन तदन्यगुणवृद्धिसंभवं प्रतिपात्येव तपःकर्म-तपोऽनुष्ठानम् । ६ हा० टी०प० २०० : उदकाई पूर्ववदेकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः। ७-हा० टी०प० २०० : 'बीजसंसक्तं' बीजैः संसक्तं-मिश्रम्, ओदनादीति गम्यते, अथवा बीजानि पृथगभूतान्येव, संसक्तं
चारनालाद्यपरेणेति। ८-हा० टी० ५० १६५ : 'तम्हा' एअं विआणित्ता-तस्मादेतत् विज्ञाय । ६-हा० टी०प० १६० : एअंच दोसं दळूणं -एनं च दोषम् --अनन्तरोदितम् । १०-हा० टी० प० २०० : एअं च दोसं ठूणं – 'एतं च' अनन्तरोदितम् । ११-हा० टी० प० २०० : तम्हा एअं वियाणित्ता-तस्मादेवं विज्ञाय ।
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