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महायारकहा ( महाचारकथा )
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अध्ययन ६ : श्लोक ३२ टि० ५१-५४
यद्यपि इसके संस्कृत रूप ये सभी बन सकते हैं फिर भी अर्थ की दृष्टि से यहाँ 'एवं' की अपेक्षा 'एतं' अधिक संगत है। यह 'दोष' शब्द का विशेषण है।
५१. समारम्भ ( समारंभंग ):
समारंभ का अर्थ आलेखन आदि किया है । आलेखन आदि की जानकारी के लिए देखिए टिप्पणी सं० ७२-७३ (४.१८) ।
श्लोक ३२:
५२. जाततेज (जायतेयं ख):
जो जन्म-काल से ही तेजस्वी हो वह 'जाततेज' कहलाता है । सूर्य 'जाततेज' नहीं होता। वह उदय-काल में शान्त और मध्याह्न में तीव्र होता है । स्वर्ण परिकर्म से तेजस्वी बनता है इसलिए वह 'जाततेज' नहीं कहलाता । जो परिकर्म के बिना उत्पत्ति के साथ-साथ ही तेजस्वी हो उसे 'जाततेज' कहा जाता है । अग्नि उत्पत्ति के साथ ही तेजस्वी होती है। इसीलिए उसे 'जाततेज' कहा गया है । ५३. अग्नि ( पावगं ख ):
____ लौकिक मान्यता के अनुसार जो हुत किया जाता है वह देवताओं के पास पहुँच जाता है इसलिए वह 'पावग' (प्रापक) कहलाता है । जैन दृष्टि के अनुसार पावक' का कोई विशेष अर्थ नहीं है। जो जलाता है वह 'पावक' है। यह अग्नि का पर्यायवाची नाम है और 'जाततेज' इसका विशेषण है । टीकाकार के अनुसार पावग' का संस्कृत रूप 'पाप' और उसका अर्थ अशुभ है। वे 'जाततेज' को अग्नि का पर्यायवाची नाम और 'पापक' को उसका विशेषण मानते हैं ।
५४. दूसरे शस्त्रों से तीक्ष्ण शस्त्र ( तिक्खमन्नयरं सत्यं ग ) :
जिससे शासन किया जाए उसे शस्त्र कहते हैं। कुछेक शस्त्र एक धार, दो धार, तीन धार, चार धार और पांच धार वाले होते हैं, किन्तु अग्नि सर्वतोधार-सब तरफ से धार वाला शस्त्र है । एक धार वाले परशु, दो धार वाले शलाका या एक प्रकार का बाण, तीन धार बाली तलवार, चार धार वाले चतुष्कर्ण और पाँच धार वाले अजानुफल होते हैं। इन सब शस्त्रों में अग्नि जैसा कोई तीक्ष्ण शस्त्र नहीं है। अगस्त्य घृणि के अनुसार 'तिक्खमन्नयरा सत्था' ऐसा पाठ होना चाहिए। इससे व्याख्या में भी बड़ी सरलता होती है । 'तिक्खमन्नयरा सत्था' अर्थात् अन्यतर शस्त्रों से तीक्ष्ण ।
१-हा० टी०प० २०० : समारम्भमालेखनादिः । २-अ० चू० पृ० १५० : जात एव जम्मकाल एव तेजस्वी, ण तहा आदिच्चो उदये सोमो मज्झे तिव्यो। ३–जि० चू०प० २२४ : जायतेजो जायते तेजमुप्पत्तीसमकमेव जस्स सो जायतेयो भवति, जहा सुवण्णादीणं परिकम्मणाविसेसेण
तेयाभिसंबंधो भवति, ण तहा जायतेयस्स । ४- (क) अ० चू० पृ० १५० : पावगं हवं, सुराणं पावयतीति पावक:-एवं लोइया भणति । वयं पुण अविसेसेण 'डहण' इति
पावकः तं पावकम् । (ख) जि० चू० पृ० २२४ : लोइयाणं पुण जं हूयइ तं देवसगास (पावइ) अओ पावगो भण्णइ । ५-हा० टी०प० २०१ : जाततेजा-अग्निः तं जाततेजस नेच्छन्ति मनःप्रभृतिभिरपि 'पापक' पाप एव पापकस्तं, प्रभूतसत्त्वा
पकारित्वेनाशुभम्। ६-(क) अ० चू० पृ० १५० : 'तं सत्थं एकधारं ईलिमादि, दुधारं करणयो, तिधार तरवारी, चउधारं चउक्कण्णओ, सव्वओ
धारं गहण विरहितं चक्कं अग्गी समंततो सव्वतोधारं, एवमण्णतरातो सत्थातो तिक्खयाए सव्वतोधारता' । (ख) जि० चू० पृ० २२४ : सासिज्जइ जेण तं सत्थं, किचि एगधार, दुधार, तिधारं, चउधार, पंचधारं, सव्वतोधारं नत्थि
मोत्तुमगणिमेगं, तत्थ एगधारं परसु, दुधार कणयो, तिधार असि, चउधारं तिपडतो कणीयो, पंचधारं अजानुफलं, सव्वओ धारं अग्गी, एतेहिं एगधारदुधारतिधारचउधारपंचधारेहि सत्थेहि अण्णं नत्थि सत्यं अगणिसत्थाओ तिक्खतरमिति।
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