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________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक) ३२० अध्ययन ६ : श्लोक ३३-३४ टि० ५५-५६ तिवमन्नयरं सत्यं' पाठ मानकर जो व्याख्या हुई है वह कुछ जटिल बन पड़ी है--तिक्वमन्नयरं सत्थं' अर्थात् अन्यतर शस्त्रसबसे तीक्ष्ण शस्त्र अथवा सर्वतोधार शस्त्र ! अन्यतर का अर्थ प्रधान है। ५५. सब ओर से दुराश्रय है ( सव्यओ वि दुरासयं घ ) : अग्नि सर्वतोधार है इसीलिए उसे सर्वतो दुराश्रय कहा गया है । इसे अपने आश्रित करना दुष्कर है। इसकी दुराश्रयता का वर्णन ३३वे श्लोक में है। श्लोक ३३ : ५६. विदिशाओं में ( अणुदिसां ख ) : एक दिग से दूसरी दिग के अन्तरित आकाश को अनुदिशा या विदिशा कहते हैं । यहाँ सप्तमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। श्लोक ३४ : ५७. अग्नि ( हव्ववाहो ख ) : 'हव्यवाह' अग्नि का पर्यायवाची नाम है। लौकिक मान्यता के अनुसार देव-तृप्ति के लिए जो घृत आदि हव्य-द्रव्यों का वहन करे वह 'हव्यवाह' कहलाता है। खुणिकार ने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि जो जीवित प्राणियों के जीवन का 'वह' (संस्कृत में वध) करता है और मूर्तिमान अजीव द्रव्यों के विनाश का वहन करता है उसे 'हव्ववाह' कहा जाता है । ५८. आघात है ( एसमाघाओ क ): यहाँ मकार अलाक्षणिक है । उपचार दृष्टि से आघात का हेतु भी आघात कहलाता है । ५९. प्रकाश और ताप के लिए ( पईवपयावठा ग ) : अग्नि-समारम्भ के दो प्रयोजन बतलाए गए हैं -प्रदीप और प्रताप । अंधकार में प्रकाश के लिए अग्नि का प्रदीपन किया जाता है-.दीप आदि जलाये जाते हैं। हिमाल में तथा वर्षाकाल में लोग अग्नि-ताप लेते हैं। अग्नि-ताप में वस्त्रों को सुखाते हैं और ओदन आदि पकाते हैं । इन दोनों प्रयोजनों में अन्य गौण प्रयोजन स्वयं समा जाते हैं। १-हा०टी०प०२०१: 'तीक्ष्णं' छेदकरणात्मकम् 'अन्यतरत् शस्त्रं' सर्वशस्त्रम्, एकधारादिशस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्प मिति भावः । २-अ० चू० पृ० १५० : अण्णतराओत्ति पधाणाओ। ३-(क) जि० चू०प० २२४ : सवओवि दुरासयं नाम एतं सत्थं सव्वतोधारतणेण दुक्खमाश्रयत इति दुराश्रयं । (ख) हा० टी०प० २०१: सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयमिति । ४---अ० चू० पृ० १५० : 'अणुदिसाओं-- अंतरदिसाओ। ५. हा० टी०प० २०१ : 'सुपां सुपो भवन्ती' ति सप्तम्यर्थे षष्ठी। ६ -(क) अ० चू० पु० १५० : हव्वाणि डहणीयाणि बहेति विद्धसयति एवं हव्ववाहो, लोगे पुण हव्वं देवाण वहति हव्यवाही। (ख) जि० चू०प० २२५: हव्वं वहतीति हव्ववाहो, तत्थ लोगसिद्ध ते हव्वं देवाणं अहावरं दिव्वा तिप्पंतीति, वहतीति वाहो, वहति णाम णेति, हव्वं नाम जंहूयते घयादि तं हव्वं भण्णइ, अम्हं पुण जम्हा हव्वाणि जीवाणं जीवियाणि वधति अजीबदम्बाण य मुत्तिमंताणं विणासं बहतीति हव्ववाहो। (ग) हा० टी० ५० २०१ : 'हव्यवाह' अग्निः । ७-(क) जि० चू० पृ० २२५ : तेसि भूताणं आपादे आघातो णाम जावंतो भूता अगणिसगासमल्लियंते ते सव्वे घातयतीति आघातो। (ख) हा० टी०प० २०१: एष 'आघात' हेतुत्वादाघातः। ८-(क) जि० चू०प० २२५ : तत्थ पदीवनिमित्तं जहा अंधकारे पगासत्थं पदीवो कीरई, पयावणनिमित्त हिमागमे वरिसासू वा ___अप्पाणं तावंति, वत्थाणि वा ओदणादीणि वा पयावंति । (ख) हा० टी० प० २०१: 'प्रदीपप्रतापनार्थम्' आलोकशीतापनोदार्थम्। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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