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विवित्तचरिया (विविक्तचर्या)
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द्वितीय चूलिका : श्लोक ५ टि० १६-२०
श्लोक ५:
१६. अनिकेतवास (अणिएयवासो):
निकेत का अर्थ घर है । व्याख्याकारों के अनुसार भिशु को घर में नहीं, किन्तु उद्यान आदि एकान्त स्थान में रहना चाहिए। आगम-साहित्य में सामान्तः भिक्षुओं के उद्यान, शुन्य गृह आदि में रहने का वर्णन मिलता है। यह शब्द उसी स्थिति की ओर संकेत करता है । इसका तात्पर्य विविक्त-शय्या' से है। मनुस्मृति में मुनि को अनिकेत कहा है । 'अनिकेतवास' का अर्थ गृह-त्याग भी हो सकता है। चूणि और टीका में इसका अर्थ अनियतवास---सदा एक स्थान में न रहना भी किया है। १७. अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना (अन्नायउछ ख ):
पूर्व परिचित पित-पक्ष और पश्चात् परिचित श्वसुर-पक्ष से गृहीत न हो किन्तु अपरिचित कुलों से प्राप्त हो, उस भिक्षा को अज्ञातोञ्छ कहा जाता है । टीकाकार ने इसका अर्थ विशुद्ध अकरणों का ग्रहण किया है। १८. एकान्तवास (पइरिक्कया ख ) :
इसका अर्थ है - एकान्त स्थान, जहाँ स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु आदि रहते हों वहाँ भिक्षु-भिक्षुणियों की साधना में विघ्न उपस्थित हो सकता है, इसलिए उन्हें विजन-स्थान में रहने की शिक्षा दी गई है।
१६. उपकरणों की अल्पता ( अप्पोवही " ):
अल्पोपधि का अर्थ उपकरणों की अल्पता या अक्रोध-भाव-ये दोनों हो सकते हैं । २०. विहार-चर्या ( विहारचरिया घ ) :
विहार-चर्या का अर्थ वर्तन या जीवन-चर्या है । जिनदास चूणि और टीका में इसका अर्थ विहार—पाद-यात्रा की चर्या किया है । पर यह विहार-चर्या शब्द इस इलोक में उक्त समस्त चर्या का संग्राहक है, इसलिए अगस्त्य चूणि का अर्थ ही अधिक संगत लगता है। कुल विवरण में भी विहार का यही अर्थ मिलता है।
१-जि० चू० पृ० ३७० : अणिएयवासोत्ति निकेतं---घरं तंमि ण वसियन्वं, उज्जाणाइवासिणा होयध्वं । २- म० स्मृ० अ० ६.४३ : अनग्निरनिकेत: स्यात् । ३–(क) अ० चू० : अणिययवासो वा जतो ण निच्चमेगस्थ वसियव्वं किन्तु विहरितव्वं ।
(ख) जि० चू० पृ० ३७० : अणियवासो वा अनिययवासो, निच्च एगते न वसियव्वं ।
(1) हा० टी०प० २८० : अनियतवासो मासकल्पादिना 'अनिकेतवासो वा' अगृहे उद्यानादी वासः । ४-- जि० चू० पृ० ३७० : पुवपच्छासंथवादीहिं ण उप्पाइयमिति भावओ, अन्नायं उछ । ५-हा० टी०प० २८० : 'अज्ञातोच्छं' विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम् । ६-(क) जि० चू० पृ०३७०: पइरिक्क विवित्तं भण्णइ, दवे जं विजणं भावे रागाइ विरहितं, सपक्खपरपक्खे माणवज्जियं वा,
तभावा पइरिक्कयाओ। (ख) हा० टी०प० २८० : 'पइरिक्कया य' विजनकान्तसेविता च । ७--(क) अ० चू० : उपधाणमुपधि । तत्थ दव्व अप्पोपधी जं एगेण वत्थेण परिसित एवमादि । भावतो अप्पकोधादी धारणं
सपक्खपरपक्खगतं । (ख) जि० चू० पृ० ३७० : पहाणमुवही जं एगवत्थपरिच्चाए एवमादि, भावओ अप्पं कोहादिवारणं सपक्खपरपक्खे गत। ८--अ० चू० : सव्वा वि एसा विहारचरिया इसिणं पसत्था-विहरण विहारो जं एव पवत्तियव्वं । एतस्स विहारस्स आचरणं
विहारचरिया। E-(क) जि० चू० पृ० ३७१ : विहरणं विहारो, सो य मासकप्पाइ, तस्स विहारस्स चरणं विहारचरिया।
(ख) हा० टी०५० २८० : 'विहारचर्या' विहरणस्थितिविहरणमर्यादा। १०-द्वा० कु० चतुर्थ विवरण : विहरणं विहारः---- सम्यक्समस्तयतिक्रियाकरणम् ।
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