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दसवेआलियं (दशवकालिक)
द्वितीय चूलिका : श्लोक ६ टि० २१-२४
५२८ श्लोक ६:
२१. आकीर्ण (आइण्ण* ):
वह भोज जहाँ बहुत भीड़ हो, आकीर्ण कहलाता है। भिक्षु आकीर्ण में भिक्षा लेने जाए तो वहाँ हाथ, पैर आदि के चोट आने की संभावना रहती है, इसलिए इसका निषेध है'।
तुलना करिए ---आयारखुला १.३४ । २२. अवमान नामक भोज ( ओमाण क ):
वह भोज, जहाँ गणना से अधिक खाने वालों की उपस्थिति होने के कारण खाद्य कम हो जाये, अवमान कहलाता है । जहाँ परिगणित' लोगों के लिए भोजन बने वहाँ से भिक्षा लेने पर भोज कार अपने निमन्त्रित अतिथियों के लिए फिर से दूसरा भोजन बनाता है या भिक्षु के लिए दूसरा भोजन बनाता है या देता ही नहीं, इस प्रकार अनेक दोषों की संभावना से इसका निषेध है।
तुलना करिए आयार 'धूला १.३ ।
२३. प्रायः दृष्ट-स्थान से लाए हुए भक्त-पान का ग्रहण ( ओसन्नदीहाहडभत्तपाणे ख ):
इसका अर्थ है प्रायः दृष्ट-स्थान से भक्त-पान लेना। इसकी मर्यादा यह है कि तीन धरों के अन्तर से लाया हुआ भक्त-पान हो, वह ले, उससे आगे का न ले । २४. भिक्षु संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा ले । दाता जो वस्तु दे रहा है उसोसे संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का
यत्न करे ( संसट्ठकप्पेण चरेज्ज भिक्खू ग, तज्जायसंसट्ठ जई जएज्जा ५ ) :
लिप्त हाथ या भाजन से आहार लेना 'संसृष्ट कल्प' कहलाता है । सचित्त वस्तु से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना मुनि के लिए निषिद्ध है अतः वह तज्जात संसृष्ट' होना चाहिए । जात का अर्थ प्रकार है । जो एक ही प्रकार के होते हैं वे 'तज्जात' कहलाते हैं।
स्थानाङ्ग वृत्ति के अनुसार 'तज्जात संसृष्ट' का अर्थ है--देय वस्तु के समान-जातीय वस्तु से लिप्त ।
सजीव वस्त से संमृष्ट हाथ और भाजन से लेना निषिद्ध है और पश्चात् कर्म-दोष टालने के लिए तज्जातीय वस्तु से असंसृष्ट हाथ और भाजन से लेना भी निषिद्ध है।
इसके लिए देखिए दशवकालिक ५.१.३५ ।
१-जि० चू० पृ० ३७१ : 'आइण्ण' मिति अच्चत्थं आइन्नं, तं पुण रायकुलसंखडिमाइ, तत्थ महाजणविमद्दो पविसमाणस्स
हत्थपादादिलूसणभाणभेदाई दोसा, उक्कट्ठगमणा इविये दायगस्स सोहेइत्ति। २ -- (क) जि० चू०पू० ३७१ : ओमाणविवज्जणं नाम अवम-ऊणं अवमाणं ओमो वा मोणा जत्थ संभवइ तं ओमाणं ।
(ख) हा० टी०प० २८०-१ : अवमानं --स्वपक्षपरपक्षप्राभृत्यजं लोकाबहुमानादि अवमाने अलाभाधाकर्मादिदोषात् । ३-(क) जि० चू० पृ० ३७१ : उस्सण्णसद्दो पायोवित्तीए वट्टइ, जहा -'देवा ओसण्णं सात वेवणं वेदेति ।
(ख) हा० टी० प० २८१। ४-(क) जि० चू०प० ३७१ : दिद्वाहडं जं जत्थ उवयोगो कीरइ, तिआइघरंतराओ परतो, णाणिसि (दि) द्वाभिहडकरणं, एयं
ओसणं दिट्ठाहडभत्तपाणं गेण्हिज्जत्ति । (ख) हा० टी०प० २८१ : इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुद्धयति, त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः, 'भिक्खग्गाही एगस्थ कुणइ
बीओ अ दोसुमुवओग' मिति वचनात् । ५–० चू० : तज्जाय संसट्ठमिति जात सद्दो प्रकारवाची, तज्जातं तधा प्रकारं जधा आमगोरसो आमस्स न गोरसस्स तज्जातो
कुसणादि पुण अतज्जातं। ६-स्था० ५.१ ००: तज्जातेन देयद्रव्याविरोधिना यत्संसृष्टं हस्तादि।
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