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________________ आमुख धामण्य का आधार है आचार । आचार का अर्थ है अहिंसा | अहिंसा अर्थात् सभी जीवों के प्रति संयम हिंसा निउ दिट्ठा, सव्व जीवेसु संजमो ॥ ( दश० ६.८ ) जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीव और अजीव दोनों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा ? जो जीवे वि न यारणाइ, अजीवे वि न यारगई । जीवाजी पारी को हम । ( ० ४.१२ ) संयम का स्वरूप जानने के लिए जीव-ग्रजीव का ज्ञान आवश्यक है । इसलिए प्राचार - निरूपण के पश्चात् जीव-निकाय का निरूपण क्रम-प्राप्त है। इस अध्ययन में अजीव का साक्षात् वर्णन नहीं है । इस अध्ययन के नाम - "छज्जीवरिणयं "- में जीव -निकाय के निरूपण की ही प्रधानता है; किन्तु जी को जानने वाला संयम को नहीं जानता (द० ४.१२ ) और नियुक्तिकार के अनुसार इसका पहला अधिकार है जीवाजीवाभिगम ( दश० नि० ४.२१६ ) इसलिए अजीव का प्रतिपादन अपेक्षित है । अहिंसा या संयम के प्रकरण में अजीव के जिस प्रकार को जानना श्रावश्यक है वह है पुद्गल । पुद्गल - जगत् सूक्ष्म भी है और स्थूल भी । हमारा अधिक सम्बन्ध स्थूल पुद्गल -जगत् से है। हमारा दृश्य और उपभोग्य संसार स्थूल पुल-जम है। वह या तो जीवच्छरीर है या जीव-मुक्त शरीर पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति पर इस (चर) वे जीवों के शरीर हैं। जीवच्युत होने पर ये जीव-मुक्त शरीर बन जाते हैं। “अन्नत्थ सत्थपरिणएणं" इस वाक्य के द्वारा इन दोनों दशाओं का दिशा-निर्देश किया गया है । शस्त्र - परिणति या मारक वस्तु के संयोग से पूर्व पृथ्वी, पानी यादि पदार्थ सजीव होते हैं और उनके संयोग से जीवच्युत हो जाते हैं निर्जीव बन जाते हैं। तात्पर्य की भाषा में पृथ्वी, पानी यादि को शस्त्र-परिगति की पूर्ववर्ती दशा सजोष है और उत्तरवर्ती दशा जीव इस प्रकार उक्त वाक्य इन दोनों दशाओं का निर्देश करता है। इसलिए जीव और अजीव दोनों का अभिगम स्वतः फलित हो जाता है । Jain Education International पहले ज्ञान होता है फिर अहिंसा - "पढमं नाणं तो दया" (दश० ४.१० ) । ज्ञान के विकास के साथ-साथ अहिंसा का विकास होता है | अहिंसा साधन है | साध्य के पहले चरण से उसका प्रारम्भ होता है और उसका पूरा विकास होता है साध्य - सिद्धि के अन्तिम चरण में । जीव और अजीव का अभिगम श्रहिंसा का आधार है और उसका फल है मुक्ति । इन दोनों के बीच में होता है उनका साधना-क्रम । इस विषय-वस्तु के आधार पर नियुक्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन को पाँच ( अजीवाभिगम को पृथक माना जाए तो छह ) अधिकारों प्रकरणों में विभक्त किया है चरिधम्मो तहेब जयरा य । जीवाजीवाहिगमो उचएस धम्मफलं छज्जीचरिणवाद अहिवारा ।। (दश० नि० ४.२१६ ) नवें सूत्र तक जीव और अजीव का अभिगम है। दसवें से सत्रहवें सूत्र तक चारित्र-धर्म के स्वीकार की पद्धति का निरूपण है । अठारहवें से तेइसवें सूत्र तक यतना का वर्णन है। पहले से ग्यारहवें श्लोक तक बन्ध और प्रबन्ध की प्रक्रिया का उपदेश है। बारहवें श्लोक तक धर्म-फल की चर्चा है मुक्ति का अधिकारी साधक ही होता है असाधक नहीं, इसलिए वह मुक्ति-मार्ग की आराधना करे, विराधना से बचे, इस उपसंहारात्मक वाणी के साथ-साथ अध्ययन , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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