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दसवेआलियं (दशवकालिक)
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अध्ययन ६ : श्लोक ७-१२
७--दस अट्ठ य ठाणाई
जाई बालोऽवरज्झई। तत्थ अन्नयरे ठाणे निग्गथत्ताओ भस्सई॥
दशाष्टौ च स्थानानि, यानि बालोऽपराध्यति । तत्रान्यतरस्मिन् स्थाने, निर्ग्रन्थत्वाद् भ्रश्यति ॥७॥
७ आचार के अठारह स्थान हैं। जो अज्ञ उनमें से किसी एक भी स्थान की विराधना करता है, वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट होता है।
[ वयछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक निसेज्जा य सिणाणं सोहवज्जणं ॥]
[ व्रतषटकं कायषट्कं, अकल्पो गृहि-भाजनम् । पर्यो निषद्या च, स्नानं शोभा-वर्जनम् ॥]
[अठारह स्थान हैं-छह व्रत और छह काय तथा अकल्प, गृहस्थ-पात्र, पर्यङ्क, निषद्या, स्नान और शोभा का वर्जन ।]
८-तथिमं पढमं ठाणं
महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणं दिवा सव्वभूएसु संजमो॥
तत्रेदं प्रथम स्थानं, महावीरेण देशितम् । अहिंसा निपुणं दृष्टा, सर्वभूतेषु संयमः ॥८॥
८-- महावीर ने उन अठारह स्थानों में पहला स्थान अहिंसा का कहा है। इसे उन्होंने सूक्ष्मरूप से १५ देखा है। सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है।
ह--जावंति लोए पाणा
तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा न हणे णो वि घायए॥
यावन्तो लोके प्राणाः, त्रसाः अथबा स्थावराः। तान् जानन्नजानन् वा, न हन्यात् नो अपि घातयेत् ॥६॥
-- लोक में जितने भी बस और स्थावर प्राणी हैं, निर्ग्रन्थ जान या अजान में उनका हनन न करे और न कराए।
१०-सवे जीवा वि इच्छन्ति
जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं । निग्गंथा वज्जयंति णं॥
सर्वे जीवा अपीच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम् । तस्मात्प्राणवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति 'ण' ॥१०॥
१०-सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसलिए प्राण-वध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं।
११-अपणट्ठा परट्ठा वा
कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए।
आत्मार्थ परार्थ वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् । हिंसकं न मृषा ब्रू यात्, नो अप्यन्यं वादयेत् ॥११॥
११-निर्ग्रन्थ अपने या दूसरों के लिए, क्रोध से" या भय से पीड़ाकारक सत्य और असत्य न बोले१८, न दूसरों से बुलवाए।
१२--मुसावाओ य लोगम्मि
सव्वसाहिं गरहिओ। अविस्सासो य भूयाणं तम्हा मोसं विवज्जए॥
मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्गहितः। अविश्वास्यश्च भूतानां, तस्मान्मृषा विवर्जयेत् ॥१२॥
१२–इस समूचे लोक में मृषावाद सब साधुओं द्वारा गहित है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अत: निर्ग्रन्थ असत्य न बोले।
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