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________________ २६७ अध्ययन ६ : श्लोक १३-१६ महायारकहा ( महाचारकथा) १३-चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमेत्तं पि ओग्गहंसि अजाइया ॥ चित्तवदचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु। दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ॥१३॥ १३-१४---संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहुत२१, दन्तशोधन २२ मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आज्ञा लिए बिना स्वयं ग्रहण नहीं करता, दूसरों से ग्रहण नहीं कराता और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करता। १४-तं अप्पणा न गेहंति नो वि गेण्हावए परं। अन्नं वा गेण्हमाणं पि नाणुजाणंति संजया ॥ तदात्मना न गृहन्ति, नाऽपि ग्राहयन्ति परम् । अन्य वा गृण्हन्तमपि, नानुजानन्ति संयताः ॥१४॥ १५-अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं ।। नायरंति मुणी लोए भेयाययणवज्जिणो ॥ अब्रह्मचर्य घोरं, प्रमादं दुरधिष्ठितम् । नाचरन्ति मुनयो लोके, भेदायतन-वजिनः ॥१५॥ १५--अब्रह्मचर्य लोक में घोर२३ प्रमादजनक और दुर्बल व्यक्तियों द्वारा आसेवित है ।२५ चरित्र-भंग के स्थान से बचने वाले२६ मुनि उसका आसेवन नहीं करते। १६-मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं तम्हा मेहुणसंसरिंग निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ मूलमेतद् अधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्यम्। तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निग्रन्था वर्जयन्ति 'ण' ॥१६॥ १६–यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महान् दोषों की राशि है। इसलिए निर्ग्रन्थ मैथुन के संसर्ग का वर्जन करते हैं। १७-बिडमुब्भेइम लोण तेल्लं सप्पि च फाणियं । न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्तवओरया ॥ बिडमुभेद्य लवणं, तैलं सर्पिश्च फाणितम् । न ते सन्निधिमिच्छन्ति, ज्ञातपुत्र-वचोरताः ॥१७॥ १७--जो महावीर के वचन में रत हैं, वे मुनि बिडलवण२८, सामुद्र-लवण, तैल, घी और द्रव-गुड़ का संग्रह ३१ करने की इच्छा नहीं करते। १८- लोभस्सेसो अणुफासो मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से ॥ लोभस्यैषोऽनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरदपि। यः स्यात्सन्निधि-कामः, गृही प्रवजितो न सः ॥१८॥ १८-जो कुछ भी संग्रह किया जाता है वह लोभ का ही प्रभाव33 है-ऐसा मैं मानता हूँ । जो श्रमण सन्निधि का कामी है वह गृहस्थ है, प्रवजित नहीं है। १९-जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम्। तदपि संयमलज्जार्थ, धारयन्ति परिदधते च ॥१६॥ १६-जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं, उन्हें मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते और उनका उपयोग करते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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