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दसवेआलियं (दशर्वकालिक)
२० न सो पर नायपुत्रेण
तो
ताइणा ।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वृत्तं
महेसिया ॥
२१- सम्वत्वहिणा संरक्खणपरिग्गहे अवि अपणो विदेहम्म नायरंति
ममाइ ॥
२३ तिमे सुहुमा
तसा
अदुव जाई राओ
कहमेसणिय
२२ - अहो निच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्ध हिं
वणियं । जा य" लज्जासमा वित्ती एगभतं च भीषणं ॥
२४- उदउल्लं
बुद्धा
२५ एवं च दो
नायपुसण
सव्वाहारं न निग्गंथा
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पाणा
थावरा ।
अपासंतो
बीयसंस
पाणा निर्वाडिया महि
दिया ताइं विवज्जेज्जा
राओ तत्थ कहं चरे ? ॥
चरे ? ॥
वणं
भासिवं ।
भुजति राइभोयणं ॥
२६ - पुढविकायं न हिंसंति
मणसा वयसा कायसा । तिथिण
संजया
करणजोएण
सुसमाहिया ॥
न स परिग्रह उक्तः,
जातपुत्रेण प्रतापनः
मूर्च्छा परिग्रह उक्तः इत्युक्तं मणि। २०।
सपना बु संरक्षणाय परि
२६६
अध्यात्मनोऽपि देहे.
नावति मतिम् ।।२१।
अहो नित्यं तप कर्म सर्वदूषितम् ।
या व लज्जासमा वृत्तिः, एक भक्तं च भोजनम् ||२२||
सन्तीमे सूक्ष्माः प्राणाः,
त्रसा अथवा स्थावराः ।
यान्त्री अपश्यन्,
कथमेषणीयं चरेत् ? ॥२३॥
उदभाई बीजसंकतं
प्राणाः निपतिता मह्याम् । दिवा तान् विवर्जयेत् रात्रौ तत्र कथं चरेत् ? ||२४||
एतं च दोषं दृष्ट्वा,
जातपुत्रेण भाषितम् । सर्वाहारं न भुञ्जते
निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम् ||२५||
पृथ्वीकार्य न हिसन्ति,
मनसा वचसा कायेन ।
विपेन करणयोन संयताः समाः ।।२६
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अध्ययन ६ इलोक २०-२६
२० सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है" । मूर्च्छा पारग्रह है-ऐसा महर्षि ( गणधर ) ने कहा है ।
२१ राव काल और सब क्षेत्रों में तीर्थङ्कर उपधि (एक दूव्य वस्त्र ) के साथ प्रव्रजित होते हैं। प्रत्येक बुद्ध, जिनकल्पिक आदि भी संयम की रक्षा के निमित्त उपधि ( रजोहरण, मुख-वस्त्र आदि ) ग्रहण करते हैं। वे उपधि पर तो क्या अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं करते ।
२२ अहो ! सभी तीर्थङ्करों ने श्रमणों के लिए संयम के अनुकूल वृत्ति और देहपालन के लिए एक बार भोजन*६ (या रागद्वेष-रहित होकर भोजन करना) इस नित्य तपः कर्म का उपदेश दिया है।
२३- जो बस और स्थावर सूक्ष्मप्राणी हैं, उन्हें रात्रि में नहीं देखता हुआ निर्ग्रन्थ एपणा कैसे कर सकता है।
२४ -- उदक से आर्द्र और बीजयुक्त भोजन तथा जीवा मार्ग उन्हें दिन में टाला जा सकता है पर रात में उन्हें टालना शक्य नहीं इसलिए निर्ग्रन्थ रात को भिक्षाचर्या कैसे कर सकता है ?
२५ - ज्ञातपुत्र महावीर ने इस हिंसात्मक दोष को देखकर कहा "जो निर्ग्रन्थ होते हैं वे रात्रि भोजन नहीं करते, चारों प्रकार के आहार में से किसी भी प्रकार का आहार नहीं करते । "
२६ - सुसमाहित संयमी मन, वचन, - इस त्रिविध करण और कृत, कारित
काया
एवं अनुमति इस त्रिविध योग से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते।
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