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________________ २६६ अध्ययन ६: श्लोक २७-३३ महायारकहा ( महाचारकथा ) २७-पुढविकायं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ पृथ्वीकार्य विहिसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान् । साँश्च विविधान् प्राणान्, चाक्षुषाँश्चाचाक्षुषान् ॥२७॥ २७-पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । २८ तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवणं । पुडविकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । पृथ्वीकाय-समारम्भ, यावज्जीव वर्जयेत् ॥२८॥ २८ – इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त पृथ्वीकाय के समारम्भ का वर्जन करे । २६-आउकायं न हिसंति मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ अप-कायं न हिंसन्ति, मनसा वचसा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः ॥२६॥ २६-सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया- इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति —इस विविध योग से अप्काय की हिसा नहीं करते । ३०-आउकायं विहिसंतो हिंसई उ तयस्सिए। तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ अप-कायं विहिसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान् । वसांश्च विविधान् प्राणान्, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ॥३०॥ ३०-- अप्काय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। ३१ तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं । आउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । अप-काय-समारम्भ, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३१॥ ३१ -- इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त अप्काय के समारम्भ का वर्जन करे । ३२-जायतेयं न इच्छति पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ॥ जात-तेजसं नेच्छन्ति, पावकं ज्वालयितुम् । तीक्षणमन्यतरच्छस्त्रं, सर्वतोऽपि दुराश्रयम् ॥३२॥ ३२---मुनि जाततेज५२ अग्नि जलाने की इच्छा नहीं करते। क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों से तीक्ष्ण शस्त्र५४ और सब ओर से दुराश्रय है५५॥ ३३... पाईणं पडिणं वा वि उड्ढं अणुदिसामवि । अहे दाहिगओ वा वि दहे उत्तरओ वि य॥ प्राच्या प्रतीच्यां वाऽपि, ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि । अधो दक्षिणतो वापि, दहेदुत्तरतोऽपि च ॥३३॥ ३३–वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अध: दिशा और विदिशाओं में५६ दहन करती है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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