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अध्ययन ६: श्लोक २७-३३
महायारकहा ( महाचारकथा ) २७-पुढविकायं विहिंसंतो
हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥
पृथ्वीकार्य विहिसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान् ।
साँश्च विविधान् प्राणान्, चाक्षुषाँश्चाचाक्षुषान् ॥२७॥
२७-पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है ।
२८ तम्हा एयं वियाणित्ता
दोसं दुग्गइवणं । पुडविकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥
तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । पृथ्वीकाय-समारम्भ, यावज्जीव वर्जयेत् ॥२८॥
२८ – इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त पृथ्वीकाय के समारम्भ का वर्जन करे ।
२६-आउकायं न हिसंति
मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥
अप-कायं न हिंसन्ति, मनसा वचसा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः ॥२६॥
२६-सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया- इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति —इस विविध योग से अप्काय की हिसा नहीं करते ।
३०-आउकायं विहिसंतो
हिंसई उ तयस्सिए। तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥
अप-कायं विहिसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान् । वसांश्च विविधान् प्राणान्, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ॥३०॥
३०-- अप्काय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है।
३१ तम्हा एयं वियाणित्ता
दोसं दुग्गइवड्ढणं । आउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥
तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । अप-काय-समारम्भ, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३१॥
३१ -- इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त अप्काय के समारम्भ का वर्जन करे ।
३२-जायतेयं न इच्छति
पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ॥
जात-तेजसं नेच्छन्ति, पावकं ज्वालयितुम् । तीक्षणमन्यतरच्छस्त्रं, सर्वतोऽपि दुराश्रयम् ॥३२॥
३२---मुनि जाततेज५२ अग्नि जलाने की इच्छा नहीं करते। क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों से तीक्ष्ण शस्त्र५४ और सब ओर से दुराश्रय है५५॥
३३... पाईणं पडिणं वा वि
उड्ढं अणुदिसामवि । अहे दाहिगओ वा वि दहे उत्तरओ वि य॥
प्राच्या प्रतीच्यां वाऽपि, ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि । अधो दक्षिणतो वापि, दहेदुत्तरतोऽपि च ॥३३॥
३३–वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अध: दिशा और विदिशाओं में५६ दहन करती है।
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