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अध्ययन ६ : श्लोक ३४-४०
दसवेआलियं (दशवकालिक) ३४- भूयाणमेसमाघाओ
हव्ववाहो न संसओ। तं पईवपयावट्ठा । संजया किंचि नारभे ॥
भूतानामेष आघातः, हव्यवाहो न संशयः । तं प्रदीपप्रतापार्थ, संयताः किञ्चिन्नारभन्ते ।।३४॥
३४-निःसन्देह यह हव्यवाह (अग्नि५७) जीवों के लिए आघात है५८ । संयमी प्रकाश और ताप के लिए इसका कुछ भी आरम्भ न करे ।
३५-तम्हा एयं वियाणित्ता
दोसं दुग्गइवणं ।। तेउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥
तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-बर्द्धनम् । तेजः काय-समारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३॥
३५-(अग्नि जीवों के लिए आघात है) इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त अग्निकाय के समारम्भ का वर्जन करे।
३६ - अनिलस्स समारंभ
बुद्धा मन्नति तारिसं। सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥
अनिलस्य समारम्भ, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् । सावद्य-बहुलं चैतं, नैनं त्रायिभिः सेवितम् ॥३६॥
३६-तीर्थङ्कर वायु के समारम्भ को अग्नि-समारम्भ के तुल्य' ही मानते हैं। यह प्रचुर पाप-युक्त है। यह छहकाय के त्राता मुनियों के द्वारा आसेवित नहीं है ।
३७-तालियंटेण पत्तेण
साहाविहुयणेण वा। न ते वीइउमिच्छन्ति वीयावेऊण वा परं ॥
तालवृन्तेन पत्रेण, शाखा-विधुवनेन वा। न ते वी जितुमिच्छन्ति, वोजयितुं वा परेण ॥३७॥
३७- इसलिए वे वीजन, पत्र, शाखा और पंखे से हवा करना तथा दूसरों से हा कराना नहीं चाहते।
३८-जंपि वत्थं व पाय वा
कंबलं पायपुंछणं । न ते वायमुईरति जय परिहरंति य॥
यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । न ते वातमुदीरयन्ति, यतं परिदधते च ॥३८॥
३८-जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं उनके द्वारा वे वायु की उदीरणा३ नहीं करते, किन्तु यतना-पूर्वक उनका परिभोग करते हैं।
३६-तम्हा एवं वियाणित्ता
दोसं दुग्गइवढ्ढणं । वाउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए ।
तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । वायुकाय-समारम्भ, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३६॥
३९-(वायु-समारम्भ सावद्य-बहुल है) इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त वायुकाय के समारम्भ का वर्जन करे।
४०.-वणस्सई न हिसंति
मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥
वनस्पति न हिंसन्ति, मनसा वचता कायेन । त्रिविधेन करण-योगेन, संयताः सुसमाहिताः ॥४०॥
४० -सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया- इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति -इस त्रिविध योग से वनस्पति की हिंसा नहीं करते।
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