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________________ ३०० अध्ययन ६ : श्लोक ३४-४० दसवेआलियं (दशवकालिक) ३४- भूयाणमेसमाघाओ हव्ववाहो न संसओ। तं पईवपयावट्ठा । संजया किंचि नारभे ॥ भूतानामेष आघातः, हव्यवाहो न संशयः । तं प्रदीपप्रतापार्थ, संयताः किञ्चिन्नारभन्ते ।।३४॥ ३४-निःसन्देह यह हव्यवाह (अग्नि५७) जीवों के लिए आघात है५८ । संयमी प्रकाश और ताप के लिए इसका कुछ भी आरम्भ न करे । ३५-तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवणं ।। तेउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-बर्द्धनम् । तेजः काय-समारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३॥ ३५-(अग्नि जीवों के लिए आघात है) इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त अग्निकाय के समारम्भ का वर्जन करे। ३६ - अनिलस्स समारंभ बुद्धा मन्नति तारिसं। सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥ अनिलस्य समारम्भ, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् । सावद्य-बहुलं चैतं, नैनं त्रायिभिः सेवितम् ॥३६॥ ३६-तीर्थङ्कर वायु के समारम्भ को अग्नि-समारम्भ के तुल्य' ही मानते हैं। यह प्रचुर पाप-युक्त है। यह छहकाय के त्राता मुनियों के द्वारा आसेवित नहीं है । ३७-तालियंटेण पत्तेण साहाविहुयणेण वा। न ते वीइउमिच्छन्ति वीयावेऊण वा परं ॥ तालवृन्तेन पत्रेण, शाखा-विधुवनेन वा। न ते वी जितुमिच्छन्ति, वोजयितुं वा परेण ॥३७॥ ३७- इसलिए वे वीजन, पत्र, शाखा और पंखे से हवा करना तथा दूसरों से हा कराना नहीं चाहते। ३८-जंपि वत्थं व पाय वा कंबलं पायपुंछणं । न ते वायमुईरति जय परिहरंति य॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । न ते वातमुदीरयन्ति, यतं परिदधते च ॥३८॥ ३८-जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं उनके द्वारा वे वायु की उदीरणा३ नहीं करते, किन्तु यतना-पूर्वक उनका परिभोग करते हैं। ३६-तम्हा एवं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवढ्ढणं । वाउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए । तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । वायुकाय-समारम्भ, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३६॥ ३९-(वायु-समारम्भ सावद्य-बहुल है) इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त वायुकाय के समारम्भ का वर्जन करे। ४०.-वणस्सई न हिसंति मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ वनस्पति न हिंसन्ति, मनसा वचता कायेन । त्रिविधेन करण-योगेन, संयताः सुसमाहिताः ॥४०॥ ४० -सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया- इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति -इस त्रिविध योग से वनस्पति की हिंसा नहीं करते। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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