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________________ महायारकथा ( महाचारकथा) ३०१ अध्ययन ६ : श्लोक ४१-४७ ४१-वणस्सई विहिंसंतो वनस्पति विहिंसन्, हिसई उ तयस्सिए। हिनस्ति तु तदाश्रितान् । तसे य विविहे पाणे त्रसाश्च विविधान् प्राणान् चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ चाक्षुषाँश्चाचाक्षुषान् ।।४१॥ ४१...-वनस्पति की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष ( अदृश्य ) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। ४२-तम्हा एयं वियाणित्ता तस्मादेतं विज्ञाय, दोसं दुग्गइवड्ढणं । दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । वणस्सइसमारंभ वनस्पति-समारम्भ, जावज्जीवाए वज्जए॥ यावज्जीव वर्जयेत् ॥४२॥ ४२—इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-गर्यन्त वनस्पति के समारम्भ का वर्जन करे। ४३-तसकायं न हिसंति त्रसकायं न हिंसन्ति, मणसा वयसा कायसा । मनसा वचसा कायेन। तिविहेण करणजोएण त्रिविधेन करण-योगेन, संजया सुसमाहिया ॥ संयताः सुसमाहिताः ॥४३॥ ४३--सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया--इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति -- इस त्रिविध योग से त्रसकाय की हिंसा नहीं करते। ४४-तसकायं विहिंसंतो त्रसकायं विहिंसन्, हिंसई उ तयस्सिए। हिनस्ति तु तदाश्रितान् । तसे य विविहे पाणे त्रसाँश्च विविधान् प्राणान्, चक्खुसे य अचक्खसे ॥ चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ॥४४॥ ४४–त्रसकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) बस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। ४५-तम्हा एवं वियाणित्ता तस्मादेतं विज्ञाय, दोसं दुग्गइवड्ढणं ।। दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । तसकायसमारंभ त्रसकाय-समारम्भ, जावज्जीवाए वज्जए॥ यावज्जीवं वर्जयेत् ॥४५॥ ४५ ---इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त वसकाय के समारम्भ का वर्जन करे। ४६–जाइं चत्तारिऽभोज्जाइं इसिणा-हारमाईणि" । ताई तु विवज्जतो संजमं अणुपालए॥ यानि चत्वारि अभोज्यानि, ऋषिणा आहारादीनि। तानि तु विवर्जयन्, संयममनुपालयेत् ॥४६॥ ४६-ऋषि के लिए जो आहार आदि चार (निम्न श्लोकोक्त) अकल्पनीय हैं, उनका वर्जन करता हुआ मुनि संयम का पालन करे। ४७–पिडं सेज्जं च वत्थं च पिण्डं शय्यां च वस्त्र च, चउत्थं पायमेव य। चतुर्थ पात्रमेव च । अकप्पियं न इच्छेज्जा अकल्पिक नेच्छेत्, पडिगाहेज्ज कप्पियं ॥ प्रतिगृण्हीयात् कल्पिकम् ॥४७॥ ४७---मुनि अकल्पनीय पिण्ड, शय्यावसति, वस्त्र और पात्र को ग्रहण करने की इच्छा न करे८ किन्तु कल्पनीय ग्रहण करे । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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