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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ६० के लिए अनाचीर्ण कहा है। इसी आगम में अन्य स्थलों तथा अन्य आनमों में भी स्थान-स्थान पर इसका निषेध किया गया है। भीषण गर्मी में भी निर्ग्रन्थ साधु पंखा आदि झलकर हवा नहीं ले सकता । इलोक ३ : १६. सन्निधि (सन्निही क ) सन्निधि का वर्जन अनेक स्थलों पर मिलता है । सन्निधि संचय का त्याग श्रामण्य का एक प्रमुख अंग माना गया है। कहा है - "संयमी मुनि लेशमात्र भी संग्रह न करे।" "संग्रह करना लोभ का अनुस्पर्श है। जो लवण, तेल, घी, गुड़ अथवा अन्य किसी वस्तु के संग्रह की कामना करता है वह गृहस्थ है साधु नहीं - ऐसा मैं मानता हूं।" सन्निधि शब्द बौद्ध त्रिपिटकों में भी मिलता है। बौद्ध साधु आरम्भ में सन्निधि करते थे। संग्रह न करने के विषय में कोई विशेष नियम नहीं था । सर्वप्रथम नियम बनाया गया उसका इतिहास इस प्रकार है-उस समय भ्रमण वेलथसीस, आनन्द के गुरु, जंगल में ठहरे हुए थे । वे भिक्षा के लिए निकले और पक्के चावल लेकर आराम में वापस आए । चावलों को सुखा दिया। जब जरूरत होती पानी से भिगो कर खाते । अनेक दिनों के बाद फिर वे ग्राम में भिक्षा के लिए निकले। साधुओं ने पूछा - ' इतने दिनों के बाद आप भिक्षा के लिए कैसे आए ?' उन्होंने सारी बातें कहीं साधुओं ने पूछा- क्या आप सन्निधिकारक भोजन करते हैं?' 'हाँ, भन्ते ।' यह बात बुद्ध के कानों तक पहुँची । बुद्ध ने नियम बनाया जो भी सन्निधिकारक भोजन खाएगा उसे पाचित्तिय दोष होगा।' रोगी साधु को छूट थी : 'भिक्षु को घी, मक्खन, तेल, मधु, खांड () आदि रोगी भिक्षुओं के सेवन करने लायक पथ्य ( भैषज्य ) को ग्रहण कर अधिक-से-अधिक सप्ताह भर रखकर भोग कर लेना चाहिए। इसका अतिक्रमण करने से उसे निस्सग्गियाचित्तीय है ।' रोगी साधु के लिए भी भगवान् महावीर का नियम था - " साधु को अनेक प्रकार के प्रकोप हो, सन्निपात हो, तनिक भी शान्ति न हो, यहाँ तक कि जीवन का अन्त कर देने वाले लिए या अन्य के लिए औषध, भैषज्य, आहार- पानी का संचय करना नहीं कल्पता" । " १ - दश० ४.१०; ६.३८-४० ; ८.६ । २-आ० १.१.७ ; सू० १.६.८, ६, १८ । ३ – उत्त० २.६ । १७. गृहि अमत्र (मिमिले ) अमत्र या मात्र का अर्थ है भाजन, बरतन । गृहि अमंत्र का अर्थ है गृहस्थ का भाजन" । सूत्रकृताङ्ग में कहा है- "दूसरे के ( गृहस्थ ४ उत्त० १६.३० : सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करं । ५ (क) श० ८.२४ सचिन कुथ्येज्जा अणुमाचि संजए । (ख) उत्त० ६.१५ : सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए । ६- दश० ६.१८ । अध्ययन ३ श्लोक ३ टि०१६-१७ : ७ ये हजार जटिल साधुओं के स्थविर नेता थे । ८—Sacred Books of the Buddhists Vol. VI: Book of Disclpline Part II. pp. 338-440. E--विनयपिटक भिक्षु पातिमोक्ष ४.२३ । ११- (क) अ० चू० पृ० ६०: अत्र निमित्तं गिहिभावणं कंसपत्तादि । (ख) जि० पू० पृ० ११२ विहित विभिाषत। (ग) हा० टी० प० ११७ : 'गृहिमात्र' गृहस्थभाजनम् । रोग आतंक उत्पन्न हों, वात-पित्त-कफ का रोग उपस्थित हो जाएं तो भी उसको अपने १० - प्रश्न० २.५ पृ० २७७-२७८ : जंपिय समस्त सुविहियस्स उ रोगायंके बहुत्यकारंमि समुप्पन्ने वाताहिक पित्त- सिंभ-अतिरिक्त कुविय तह सन्निवातजाते व उदयपत्ते उज्जल-बल- विउल-तिउल-कक्खड-पगाढ दुक्खे असुभ कडुय फरुसे चंडफल- विवागे महम्भये जीवित करणे सव्वसरीर-परितावणकरे न कप्पति तारिसे वि तह अप्पणो परस्स वा ओसह भेसज्ज, भत्त-पाणं च तंपि सन्निहिकयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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