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खुड़ियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा) ५६ अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० १४-१५ हो तो जल में रहने वाले अनेक जीव मुक्त हो जाएँ ! जो जल-स्नान में मुक्ति कहते हैं वे अस्थान में कुशल हैं । जल यदि कर्म-मल को हरेगा तो सुख-पुण्य को भी हर लेगा। इसलिए स्नान से मोक्ष कहना मनोरथ मात्र है। मंद पुरुष अन्धे नेताओं का अनुसरण कर केवल प्राणियों की हिंसा करते हैं । पाप-कर्म करने वाले पापी के उस पाप को अगर शीतोदक हर सकता तब तो जल के जीवों की घात करने वाले जल-जन्तु भी मुक्ति प्राप्त कर लेते । जल से सिद्धि बतलाने वाले मृषा बोलते हैं । अज्ञान को दूर कर देख कि त्रस और स्थावर सब प्राणी सुखाभिलाषी हैं । तू त्रस और स्थावर जीवों की घात को क्रिया न कर । जो अचित्त जल से भी स्नान करता है वह नाग्न्य सेश्रमणभाव से दूर है।" १४. गंध, माल्य ( गन्धमल्ले घ) :
___ गन्ध ---इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ । माल्य—फूलों की माला। इन दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग अनेक स्थलों पर मिलता है । गन्ध-माल्य साधु के लिए अनाचीर्ण है, यह उल्लेख भी अनेक स्थलों पर मिलता है।
'प्रश्नव्याकरण' में पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा कैसे होती है यह बताया गया है। वहाँ उल्लेख है कि गन्ध-माल्य के लिए मूढ़, दारुण-मति लोग वनस्पतिकाय के प्राणियों का घात करते हैं । गन्ध बनाने में फूल या वनस्पति विशेष का मर्दन, घर्षण करना पड़ता है। माला में बनस्पतिकाय के जीवों का विनाश प्रत्यक्ष है। गन्ध-माल्य का निषेध वनस्पतिकाय और तदाश्रित अन्य वस-स्थावर जीवों की हिंसा से बचने की दृष्टि से भी किया गया है । विभूषा-त्याग और अपरिग्रह-महाव्रत की रक्षा की दृष्टि भी इसमें है । साधु को नाना पदार्थों की मनोज्ञ और भद्र सुगन्ध में आसक्त नहीं होना चाहिए ऐसा कहा है। धूणि और टीका में मालाएँ चार प्रकार की बताई गई हैंग्रथित, वेष्टित, पूरिम और संघातिम । बौद्ध-आगम विनयपिटक में अनेक प्रकार की मालाओं का उल्लेख है। १५. वीजन ( वीयणे घ) :
तालवृन्तादि द्वारा शरीर अथवा ओदनादि को हवा डालना वीजन है।।
जैन-दर्शन में 'षड्जीवनिकायबाद' एक विशेष वाद है । इसके अनुसार वायु भी जीव है। तालवन्त, पंखा, व्यजन, मयूरपंख आदि पंखों से उत्पन्न वायु के द्वारा सजीव वायु का हनन होता है तथा संपातिम जीव मारे जाते हैं।२ । इसीलिए व्यजन का व्यवहार साधु
१-सू० १.७.१२-२२। २-(क) अ० चू० पृ०६० : गंधा कोढपुडादतो।
(ख) जि० चू० पृ० ११२ : गंधग्गहणेण कोटपुडाइणो गंधा गहिया ।
(ग) हा० टी०प० ११७ : गन्धग्रहणात्कोष्ठपुटादिपरिग्रहः । ३-(क) अ० चू० पृ०६० : मल्लं गंथिम-पूरिम-संघातिमं ।
(ख) जि० चू० १० ११२ : मल्लग्गहणेण गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमं चउविहंपि मल्लं गहितं ।
(ग) हा० टी०प०११७ : माल्यग्रहणाच्च ग्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य । ४-सू० १.६.१३। ५–प्रश्न० १.१ : गंध-मल्ल अणुलेवणं एवमादिएहि बहुहि कारणसतेहिं हिंसंति ते तरुगणे, भणिता एवमादी सत्ते सत्तपरिवज्जिया
उवहणंति, दढमूढ़ा दारुणमती। ६-प्रश्न० २.५। ७-देखिए ऊपर पाद-टि०३।
-विनयपिटक : चुल्लवग्ग १.३.१ पृ० ३४६ । 8-(क) अ० चू० पृ० ६० : बीयणं सरीरस्स भत्तातिणो वा उक्खेवादीहि ।
(ख) जि० चू० पृ० ११२ : वीयणं णाम घम्मत्तो अत्ताणं ओदणादि वा तालवेंटाबीहिं वीयेति ।
(ग) हा० टी०प० ११७ : वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एव । १०-दश०४; आ० १.१ । ११-दश० ४ : वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । १२-(क) प्रश्न १.१ : सुप्प वियण तालयंट पेहुण मुह करयल सागपत्त वत्थमाइएहि अणिलं हिंसति ।
(ख) अ०० पृ०६० : वीयणे संपादिमवायुवहो।
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