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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ३: श्लोक २ टि०१३ रात्रि-भोजन वर्जन को श्रामण्य का अविभाज्य अङ्ग माना है। रात में चारों आहारों में से किसी एक को भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। १३. स्नान ( सिणाणे ग ) :
स्नान दो तरह के होते हैं -देश-स्नान और सर्व-स्नान । शौच स्थानों के अतिरिक्त आँखों के भौं तक का भी धोना देश-स्नान है। सारे शरीर का स्नान सर्व-स्नान कहलाता है । दोनों प्रकार के स्नान अनाचीणं हैं।
___स्नान-वर्जन में भी अहिंसा की दृष्टि ही प्रधान है। इसी सूत्र (६.६१-६३) में यह दृष्टि बड़े सुन्दर रूप में प्रकट होती है । वहाँ कहा गया है-"रोगी अथवा निरोग जो भी साधु स्नान की इच्छा करता है वह आचार से गिर जाता है और उसका जीवन संयम-हीन हो जाता है । अत: उष्ण अथवा शीत किसी जल से निर्ग्रन्थ स्नान नहीं करते। यह घोर अस्नान-व्रत यावज्जीवन के लिए है।" जैनआगमों में स्नान का वर्जन अनेक स्थलों पर आया है।
स्नान के विषय में बुद्ध ने जो नियम दिया वह भी यहाँ जान लेना आवश्यक है। प्रारम्भ में स्नान के विषय में कोई निषेधात्मक नियम बौद्ध-संघ में था, ऐसा प्रतीत नहीं होता । बौद्ध-साधु नदियों तक में स्नान करते थे, ऐसा उल्लेख है । स्नान-विषयक नियम की रचना का इतिहास इस प्रकार है ...उस समय भिक्षु तपोदा में स्नान किया करते थे। एक बार मगध के राजा सेणिय-बिम्बिसार तपोदा में स्नान करने के लिए गए । बौद्ध साधुओं को स्नान करते देख वे एक ओर प्रतीक्षा करते रहे। साधु रात्रि तक स्नान करते रहे । उनके स्नान कर चुकने पर सेणिय-बिम्बिसार ने स्नान किया। नगर का द्वार बन्द हो चुका था। देर हो जाने से राजा को नगर के बाहर ही रात बितानी पड़ी। सुबह होते ही गन्ध-बिलेपन किए वे तथागत के पास पहुँचे और अभिनन्दन कर एक ओर बैठ गए। बुद्ध ने पूछा'आवुस ! इतने सुबह गन्ध-विलेपन किए कैसे आए ?' सेणिय-बिम्बिसार ने सारी बात कही। बुद्ध ने धार्मिक कथा कह सेणिय-बिम्बिसार को प्रसन्न किया । उनके चले जाने के बाद बुद्ध ने भिक्षु-संघ को बुलाकर पूछा- क्या यह सत्य है कि राजा को देख चुकने के बाद भी तुम लोग स्नान करते रहे ?' 'सत्य है भन्ते !' भिक्षुओं ने जवाब दिया । बुद्ध ने नियम दिया : 'जो भिक्षु १५ दिन के अन्तर से पहले स्नान करेगा उसे पाचित्तिय का दोष लगेगा।' इस नियम के बन जाने पर गर्मी के दिनों में भिक्षु स्नान नहीं करते थे । गात्र पसीने से भर जाता । इससे सोने के कपड़े गन्दे हो जाते थे। यह बात बुद्ध के सामने लाई गई। बुद्ध ने अपवाद किया-गर्मी के दिनों में १५ दिन से कम अन्तर पर भी स्नान किया जा सकता है। इसी तरह रोगी के लिए यह लूट दी। मरम्मत में लगे साधुओं के लिए यह छूट दी। वर्षा और आंधी के समय में यह छूट दी ।
महावीर का नियम था-"गर्मी से पीड़ित होने पर भी साधु स्नान करने की इच्छा न करे।" उनकी अहिंसा उनसे स्नान के विषय में कोई अपवाद नहीं करा सकी । बुद्ध की मध्यम प्रतिपदा-बुद्धि सुविधा-असुविधा का बि वार करती हुई अपवाद गढ़ती गई ।
भगवान् के समय में शीतोदक-सेवन से मोक्ष पाना माना जाता था। इसके विरुद्ध उन्होंने कहा ---"प्रातः स्नान आदि से मोक्ष नहीं है । सायंकाल और प्रात:काल जल का स्पर्श करते हुए जल-स्पर्श से जो मोक्ष की प्राप्ति कहते हैं वे मिथ्यात्वी हैं। यदि जल-स्पर्श से मुक्ति
१-उत्त० १६.३० : चउविहे वि आहारे, राईभोयणवज्जणा। २-(क) अ० चू० पृ०६० : सिणाणं दुविहं देसतो सव्वतो वा । देससिणाणं लेवाडं मोत्तणं जं णेव त्ति, सव्वसिणाणं जं
ससीसोण्हाति। (ख) जि० चू० पृ० ११२ : सिणाणं दुविहं भवित, त० देससिणाणं सम्वसिणाणं च, तत्थ देससिणाणं लेवाडयं मोत्तण सेस
अच्छि पम्ह पक्खालणमेत्तमवि देससिणाणं भवइ, सव्वसिणाणं जो ससीसतो हाइ। (ग) हा० टी० ५० ११६-१७ : 'स्नानं च'– देशसर्वभेदभिन्नं, देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्षिपदमप्रक्षालनमपि सर्व
स्नानं तु प्रतीतम् । ३-उत्त० २.६% १५.८%; आ० चू० २.२.२.१, २.१३; सू० १.७.२१.२२, १.६.१३ । ४-Sacred Book of The Buddhists Vol. XI. Part II. LVII pp. 400-405. ५.-उत्त० २.६ : उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं वि नो पत्थए ।
गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं ॥ ६-सू० १.७.१३ : पाओसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो।
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