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खुडियापारकाध (सुल्लिकाचार- कहा )
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अध्ययन ३ श्लोक २ टि० १२
"एक श्रद्धालु तरुण महामात्य ने दूसरे दिन के लिए बुद्ध सहित भिक्षु संघ को निमन्त्रित किया। उसे हुआ कि साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के लिए साढ़े बारह सौ थालियाँ तैयार कराऊँ और एक-एक भिक्षु के लिए एक-एक मांस की थाली प्रदान करूँ । रात बीत जाने पर ऐसा ही कर उसनेत थागत को सूचना दी - 'भन्ते ! भोजन का काल है, भात तैयार है ।' तथागत भिक्षु संघ सहित बिछे आसन पर जा बैठे। महामात्य चौके में भिक्षुओं को परोसने लगा । भिक्षु बोले : 'आबुस ! थोड़ा दो । आबुस ! थोड़ा दो ।' 'भन्ते ! यह श्रद्धालु महामात्य तरुण है - यह सोच थोड़ा-थोड़ा मत लीजिए। मैंने बहुत खाद्य-भोज्य तैयार किया है । साढ़े बारह सौ मांस की थालियां तैयार की हैं जिससे कि एक-एक भिक्षु को एक-एक मांस की थाली प्रदान करूँ । भन्ते ! खूब इच्छापूर्वक ग्रहण कीजिए ।' 'आस ! हमने सबेरे ही भोज्य यवागू और मधुगोलक खा लिया है, इसलिए थोड़ा-थोड़ा ले रहे हैं ।' महामात्य असन्तुष्ट हो भिक्षुओं के पात्रों को भरता चला गया 'खाओ या ले जाओ। खाओ या ले जाओ ।'
"तथागत संतर्पित हो वापस लौटे । महामात्य को पछतावा हुआ कि उसने भिक्षुओं के पात्रों को भर उन्हें यह कहा कि खाओ या ले जाओ। वह तथागत के पास आया और अपने पछतावे की बात बता पूछने लगा- 'मैंने पुण्य अधिक कमाया या अपुण्य ?" तथागत बोले 'आस! जो कि तूने दूसरे दिन के लिए बुद्ध-सहित भिक्षु संघको मत किया इससे तूने बहुत उपार्जित किया । जो कि तेरे यहाँ एक-एक भिक्षु ने एक-एक दान ग्रहण किया इस बात से तूने बहुत पुण्य कमाया। स्वर्ग का आराधन किया ।' ' लाभ हुआ मुझे, सुलाभ हुआ मुझे, मैंने बहुत पुण्य कमाया, स्वर्ग का आराधन किया- सोच हर्षित हो तथागत को अभिवादन कर महामात्य प्रदक्षिणा कर चला गया ।"
यह घटना इस बात पर सुन्दर प्रकाश डालती है कि औद्देशिक, क्रीतकृत और नियाग आहार बौद्ध भिक्षुओं के लिए वर्जनीय नहीं थे ।
बुद्ध और महावीर के भिक्षा नियमों का अन्तर उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है । महावीर औद्दे शिक आदि चारों प्रकार के आहार ग्रहण में ही नहीं, अन्य वस्तुओं के ग्रहण में भी स्पष्ट हिंसा मानते जब कि बुद्ध ऐसा कोई दोष नहीं देखते थे और आहार की तरह ही अन्य ऐसी वस्तुएँ ग्रहण करते थे। बौद्ध संघ के के लिए विहार आदि बनाये जाते थे और बुद्ध तथा बौद्ध भिक्षु उनमें रहते थे जबकि महावीर ओद्दशिक मकान में नहीं ठहरते थे ।
महावीर के इन नियमों में अहिंसा का सूक्ष्म दर्शन और गम्भीर विवेक है। जहाँ सूक्ष्म हिंसा भी उन्हें मालूम दी वहाँ उससे बचने का मार्ग उन्होंने ढूंढ़ बताया सूक्ष्म हिंसा से बचाने के लिए ही उन्होंने भिक्षुओं से कहा था "गृहस्थों द्वारा अनेक प्रकार के शस्त्रों से लोक-प्रयोजन के लिए कर्म-समारम्भ किये जाते हैं। गृहस्व अपने लिए पुत्रों के लिए, पुत्रवधुओं के लिए ज्ञातियों के लिए यात्रियों के लिए, दासों के लिए दासियों के लिए, कर्मकरों के लिए, कर्मकरियों के लिए अतिथियों के लिए विभिन्न उपहारों या उत्पयों के लिए, शाम के भोजन के लिए, प्रातःराश कलेवे के लिए, संसार के किसी-न-किसी मानव के भोजन के लिए, सन्निधि-संचय करते हैं । भिक्षा के लिए उठा हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ, आर्यदर्शी अनगार सर्व प्रकार के आमगंध-औद्दे शिक आदि आहार को जान उसे ग्रहण न करे, न कराए, न उसके ग्रहण का अनुमोदन करे निरामय होकर विचरण करे।"
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१२. रात्रि-भक्त ( राइभत्ते ग )
रात्रि-भक्त के चार विकल्प होते हैं (३) रात में लाकर दिन में खाना और ( ४
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(१) दिन में लाकर दूसरे दिन
दिन में खाना ( २ ) दिन में लाकर रात्रि में खाना रात में लाकर रात में खाना । इन चारों का ही निषेध है ।
१- विनयपिटक : महावग्ग ६.७५ पृ० २-- विनयपिटक: चुल्लवग्ग ६.३.१ पृ० ३ - आ० ११२११०४-१०८ ।
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४ – (क) प्र० धू० पृ० ६० तं रातिमत्तं चतु तं जहा दिवा घेतुं वितियदिवसे दिवा जति दिवा घे राति जति २ राति घेत्तु दिवा भुजति ३ राति घेतुं राति भुजति ४ ।
२३५-३६ से संक्षिप्त ।
६४१-६२ ।
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(ख) जि० ० पृ० ११२ ।
(ग) हा० टी० प० ११६ रात्रिभक्त" रात्रिभोजनं दिवसगृहीतदिवसमुक्तादिचतुर्भङ्गलक्षणम् ।
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