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दसवेलियं ( दशवैका लिक)
वे
गुण 'कौन से हैं ? इस अध्ययन में इसी प्रश्न का उत्तर है ।
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इस अध्ययन का नाम 'स- भिक्षु' या 'सद्-भिक्ष' है'। यह प्रस्तुत सूत्र का उपसंहार है । पूर्ववर्ती अध्ययनों में वरिणत श्राचारनिधि का पालन करने के लिए जो भिक्षा करता है वही भिक्ष है, केवल उदर-पूर्ति करने वाला भिक्षु नहीं है - यह इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है । 'स' श्रीर 'भिक्खु' इन दोनों के योग से भिक्षु शब्द एक विशेष अर्थ में रूढ़ हो गया है। इसके अनुसार भिक्षाशील व्यक्ति भिक्षु नहीं है, किन्तु जो कि जीवन के निर्वाह के लिए भिक्षा करता है वही भिक्षु है इससे भिखारी और भिक्ष के बीच को मेरे स्पष्ट हो जाती है । इस अध्ययन की २१ गाथाएं हैं। सबके अन्त में 'सभिक्ष' शब्द का प्रयोग है। उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन में भी ऐसा ही है । उसका नाम भी यही है । विषय और पदों की भी कुछ समता है। संभव है शय्यम्भवसूरि ने दसवें अध्ययन की रचना में उसे आधार माना हो ।
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भिक्षु वर्ग विश्व का एक प्रभावशाली संगठन रहा है। धर्म के उत्कर्ष के साथ धार्मिकों का उत्कर्ष होता है। धर्म का नेतृत्व भिक्ष वर्ग के हाथ में रहा । इसलिए सभी आचार्यों ने भिक्षु की परिभाषाएँ दीं और उसके लक्षण बताए । महात्मा बुद्ध ने भिक्ष, के अनेक लक्षण बतलाए हैं । 'धम्मपद' में 'भिक्खुवग्ग' के रूप में उनका संकलन भी है। उसकी एक गाथा 'स. भिक्खु' श्रध्ययन की १५ वें श्लोक से तुलनीय है : त्यो पातो वाचायत समो
अन्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाड़ भिक्खू ।। (धम्म० २५.३)
हत्थ - संजए पाय- संजए, वाय-संजए, संजई दिए ।
अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भित्र ।। ( दश० १०.१५)
भिक्ष ु चर्या की दृष्टि से इस अध्ययन की सामग्री बहुत ही अनुशीलन योग्य है । वोसट् ठचत्त देहे (श्लोक १३), अन्नाय उछं (श्लोक १६) पते पुण्यपावं (श्लोक १८) यादि-आदि वाक्यांश यहां प्रयुक्त हुए हैं, जिनके पीछे धमणों का त्याग और विचार मन्थन का इतिहास झलक रहा है ।
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यह नवें पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्भूत हुआ है।
१ - हैम० ८.१.११ : सद्- भिक्षु का भी प्राकृत रूप सभिक्खू बनता है । अन्त्यव्यञ्जनस्य २ (क) दश० नि० ३३०: जे भावा दसवे आलिअम्मि, करणिञ्ज वण्णिअ जिणेहिं ।
(ख) दश० नि० ३४६ ३- दश० नि० गा० १७ ।
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अध्ययन : आमुख
सिरामायणमिति (मी) जो भिक्खू भन्न सक्ि जो भिर गुणरहिओ भिक्वं गिर न होइ सो भि
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"सद्भक्षु: -
= सभिक्खू |
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