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मुख
सदृश वेष और रूप के कारण मूलतः भिन्न-भिन्न वस्तुओं की संज्ञा एक पड़ जाती है। जात्य-सोने और यौगिक-सोने-दोनों का रंग सदृश ( पीला ) होने से दोनों 'सुवर्ण' कहे जाते हैं।
जिसकी आजीविका केवल भिक्षा हो वह 'भिक्षु' कहलाता है । सच्चा साधु भी भिक्षा कर खाता है और ढोंगी साधु भी भिक्षा कर खाता है, इससे दोनों की संज्ञा 'भिक्षु बन जाती है ।
पर असलो सोना जैसे अपने गुणों से कृत्रिम सोने से सदा पृथक् होता है, वैसे ही सद्-भिक्षु असद्-भिक्षु से अपने गुणों के कारण सदा पृथक् होता है।
कसौटी पर कसे जाने पर जो खरा उतरता है, वह सुवर्ण होता है। जिसमें सोने की युक्ति-रंग आदि तो होते हैं पर जो कसौटी पर अन्य गुणों से खरा नहीं उतरता, वह सोना नहीं कहलाता ।
जैसे नाम और रूप से यौगिक-सोना सोना नहीं होता, वैसे ही केवल नाम और वेष से कोई सच्चा भिक्षु नहीं होता । गुणों से ही सोना होता है और गुणों से ही भिक्षु । विष की घात करने वाला, रसायन, मांगलिक, विनयी, लचीला, भारी, न जलने वाला, काट-रहित और दक्षिणा-वत-इन गुणों से उपेत सोना होता है।
जो कष, छेद, ताप और ताडन-इन चार परीक्षाओं में विषघाती ग्रादि गुणों से संयुक्त ठहरता है, वह भाव-सुवर्ण-असली सुवर्ण है और अन्य द्रव्य-सुवर्ण-नाम मात्र का सुवर्ण । . संवेग, निर्वेद, विवेक (विषय-त्याग), सुशील-संसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, शांति, मार्दव, प्रार्जव, अदीनता, तितिक्षा, आवश्यक-शुद्धि-ये सच्चे भिक्षु के लिंग हैं।
___ जो इनमें खरा ठहरता है, वही सच्चा भिक्षु है । जो केवल भिक्षा मांगकर खाता है पर अन्य गुणों से रहित है, वह सच्चा भिक्षु नहीं होता । वर्ण से जात्य-सुवर्ण के सदृश होने पर भी अन्य गुरण न होने से जैसे यौगिक-सोना सोना नहीं ठहरता।
सोने का वर्ण होने पर भी जात्य-सुवर्ण वही है जो गुरण-संयुक्त हो । भिक्षाशील होने पर भी सच्चा भिक्षु वही है जो इस अध्ययन में वणित गुणों से संयुक्त हो।
भिक्ष का एक निरुक्त है-जो भेदन करे वह 'भिक्षु' । इस अर्थ से जो कुल्हाड़ा ले वृक्ष का छेदन-भेदन करता है वह भी भिक्ष कहलाएगा, पर ऐसा भिक्षु द्रव्य-भिक्षु (नाम मात्र से भिक्षु) होगा। भाव-भिक्षु (वास्तविक भिक्षु) तो वह होगा जो तपरूपी कुल्हाड़े से संयुक्त हो । वैसे ही जो याचक तो है पर अविरत है-वह भाव-भिक्ष नहीं द्रव्य-भिक्षु है।
जो भीख मांगकर तो खाता है पर स-दार और प्रारंभी है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है। जो मांगकर तो खाता है पर मिथ्या-दृष्टि है, स-स्थावर जीवों का नित्य वध करने में रत है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है।
जो मांगकर तो खाता है पर संचय करने वाला है, परिग्रह में मन, वचन, काया और कृत, कारित, अनुमोदन रूप से निरत - ग्रासन है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्षु है।
जो मांगकर तो खाता है पर सचित्त-भोजी है, स्वयं पकाने वाला है, उद्दिष्ट-भोजी है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है।
जो मांगकर तो खाता है पर तीन करण तीन योग से प्रात्म, पर और उभय के लिए सावध प्रवृत्ति करता है तथा अर्थ-अनर्थ पाप में प्रवृत्त है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है।
प्रश्न है-फिर भाव-भिक्ष (सद्-भिक्ष ) कौन है ? उत्तर है-जो प्रागमतः उपयुक्त और भिक्ष के गुणों को जानकर उनका पालन करता है, वही भाव-भिक्ष है।
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