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टिप्पण : अध्ययन ६ ( चतुर्थ उद्देशक )
सूत्र १ १. इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में ( इह ) :
___ 'इह' शब्द के द्वारा दो अर्थ गृहीत किए गए हैं—(१) निर्ग्रन्थ-प्रवचन में और (२) इस लोक में इस क्षेत्र में । २. ( खलु ):
यहाँ 'खलु' शब्द से अतीत और अनागत स्थविरों का ग्रहण किया गया है । ३. स्थविर ( थेरेहिं ):
यहाँ स्थविर का अर्थ गणधर किया है। ४. समाधि ( समाहो) :
समाधि शब्द अनेकार्थक है । टीकाकार ने यहां उसका अर्थ आत्मा का हित, सुख और स्वास्थ्य किया है। विनय, श्रुत, तप और आचार के द्वारा आत्मा का हित होता है, इसलिए समाधि के चार रूप बतलाए गए हैं। अगस्त्यसिंह ने समारोपण और गुणों के समाधान (स्थिरीकरण या स्थापन) को समाधि कहा है। उनके अनुसार विनय, श्रु त, तप और आचार के समारोपण या इनके द्वारा होने वाले गुणों के समाधान को विनय-समाधि, तप-समाधि और आचार-समाधि कहा जाता है।
सूत्र ३: ५. (विणए सुए अ तवे .........):
यहाँ यह शंका हो सकती है कि इस श्लोक से पूर्व गद्य-भाग में चार समाधियों का नामोल्लेख हो चुका है तो फिर उसकी पुनरावृत्ति क्यों की गई ? अगस्त्यसिंह स्थविर एवं जिनदास महत्तर इस शंका का निरसन करते हुए कहते हैं कि उद्दिष्ट अर्थ की स्फुट
१-- (क) जि० चू० पृ० ३२५ : इहत्ति नाम इह सासणे ।
(ख) अ० चू० : इहेति इहलोगे सासणे वा।
(ग) हा० टी०प० २५५ : इह क्षेत्रे प्रवचने वा। २---(क) अ० चू० : खलु सद्दो अतीताणागत थेराण वि एवं पण्णवणा विसेसणत्थं ।
(ख) जि० चू०पू० ३२५ : खलुसद्दो".""""""""विसेसयति ।
(ग) हा० टी०प० २५५ : खलुशब्दो विशेषणार्थ: न केवलमत्र कि त्वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि । ३—(क) अ० चू० : थेरा पुण गणधरा ।
(ख) जि० चू० पृ. ३२५ : थेरगहणेण गणहराणं गहणं कयं ।
(ग) हा० टी०५० २५५ : 'स्थविरः' गणधरः । ४–हा० टी०प० २५६ : समाधानं समाधिः-परमार्थत-आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम्। ५-अ० चू० : जं विणयसमारोवणं विणयेण वा जं गुणाण समाधाणं एस विणयसमाधी भवतीति ।
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