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________________ विणयसमाही ( विनय-समाधि ) ___४६६ अध्ययन ६ (च० उ०) : सूत्र ४ टि० ६-१० अभिव्यक्ति के लिए इलोक दिया जाता है । इस अभिमत की पुष्टि के लिए वे पूर्वज आचार्यों के अभिमत का भी उल्लेख करते हैं । जो अर्थ गद्य में कहकर पुन: श्लोक में कहा जाता है, वह व्यक्ति के अर्थ-निश्चय (स्फुट अर्थ-निश्चय) में सहायक होता है और दुरूह स्थलों को सुगम बना देता है। ६. लीन किए रहते हैं ( अभिरामयंति ) : 'अभिराम' का यहाँ अर्थ है जोतना, योजित करना, विनय आदि गुणों में लगाना', लीन करना। सूत्र ४: ७. सुनना चाहता है ( सुस्सूसइ ) : _ 'शुश्रूष्' धातु का यहाँ अर्थ है-- सम्यक् रूप से ग्रहण करना । इसका दूसरा अर्थ है-- सुनने की इच्छा करना या सेवा करना । ८. ( ज्ञान ) को ( वेयं ) : वेद का अर्थ है ज्ञान । ९. आराधना करता है ( आरायइ ): आराधना का अर्थ है - ज्ञान के अनुकूल क्रिया करना । १०. आत्मोत्कर्ष... नहीं करता ( अत्तसंपग्गहिए ): जिसकी आत्मा गर्व से संप्रगृहीत (अभिमान से अवलिप्त) हो, उसे संप्रगृहीतात्मा (आत्मोत्कर्ष करने वाला) कहा जाता है । मैं विनीत हूँ, कार्यकारी हूँ-ऐसा सोचना आत्मोत्कर्ष है। १- (क) अ० चु० : उद्दिट्ठस्स अत्थस्स फुडीकरणत्थं सुभणणत्थं सिलोगबंधो। (ख) जि० चू० पृ० ३२५ : तेसि चेव अत्थाणं फुडीकरणणिमित्तं अविकप्पणानिमित्तं च । २-(क) अ० चू० : गद्येनोक्तः पुनः श्लोके, योऽर्थः समनुगीयते । ___स व्यक्तिव्यवसायार्थ, दुरुक्तग्रहणाय च ॥ (ख) जि० चू० पृ० ३२५ : “यदुक्तो यः (ऽत्र) पुनः श्लोकरर्थस्समनुगीयते । ३ -जि० चू० पृ० ३२५ : अप्पाणं जोतंति त्ति। ४-हा० टी० प० २५६ : 'अभिरमयन्ति' अनेकार्थत्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जते। ५.--- (क) अ० चू० सुस्सूसतीय परमेणादरेण आयरिओवज्झाए। (ख) जि० चू० पृ० ३२७ : आयरियउवज्झायादओ य प्रादरेण हिओवदेसगत्तिकाऊण सुस्सूसइ । (ग) हा० टी०प० २५६ : 'शुश्रूषतो' त्यनेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते । ६-(क) अ० चू० : विदति जेण अस्थिविसेसे जंमि वा भणिते विदति सो वेदो तं पण नाणमेव । (ख) जि० चू० पृ० ३२६ : वेदो-नाणं भण्णइ । (ग) हा० टी० प० २५५ : वेद्यतेऽनेनेति वेद:-श्रुतज्ञानम् । ७-(क) जि० चू० पृ० ३२६ : तत्थ जं जहा भणितं तहेव कुब्वमाणो तमायरइत्ति । (ख) हा० टी०प० २५६ : आराधयति ....'यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति । ८-(क) अ० चू० : संपग्गहितो गम्वेण जस्स अप्पा सो अत्तसंपग्गहितो। (ख) जि० चू० पृ० ३२६ : अत्तुक्करिसं करेइत्ति, जहा विणीयो जहुत्तकारी य एवमादि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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