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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४६६ अध्ययन १० : श्लोक १६ टि० ५४-५८ ५४. वाणी से संयत ( वायसंजए ख ): - जो अकुशल वचन का निरोध करता है और कार्य होने पर कुशल वचन की उदीरणा करता है, उसे वाणी से संयत कहते हैं। देखिए- 'संजइंदिए' का टिप्पण ५५ । ५५. इन्द्रिय से संयत ( संजइंदिए ख ): जो धोत्र आदि इन्द्रियों को विषयों में प्रविष्ट नहीं होने देता तथा विषय प्राप्त होने पर जो उन में राग-द्वेष नहीं करता, उसे इन्द्रियों से संयत कहते हैं । मिलाएँ चक्खुना संवरो साधु साधु सोतेन संवरो। घाणेन संवरो साधु साधु जिह्वाय संवरो॥ कायेन संवरो साधु साधु वाचाय संवरो। मनसा संवरो साधु साधु सब्बत्थ संवरो। सब्बत्थ संवुतो भिक्खू सब्बदुक्खा पमुच्चति ॥ धम्मपद २५.१-२ । ५६. अध्यात्म ( अज्झप्पग): अध्यात्म का अर्थ शुभ ध्यान है। श्लोक १६: ५७. जो मुनि वस्त्रादि उपधि (उपकरणों) में मूच्छित नहीं है, जो अगृद्ध है ( उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धक): जिनदास महत्तर के अनुसार मूर्छा और गृद्धि एकार्थक भी हैं । जहाँ बलपूर्वक कहना हो या आदर प्रदर्शित करना हो वहाँ एकार्थक शब्दों का प्रयोग पुनरुक्त नहीं कहलाता और उन्होंने इनमें अन्तर बताते हुए लिखा है कि-' मूर्छा' का अर्थ मोह और 'गृद्धि' का अर्थ प्रतिबन्ध है । उपधि में मूच्छित रहने वाला करणीय और अकरणीय को नहीं जानता और गृद्ध रहने वाला उसमें बंध जाता है। इसलिए मुनि को अमूच्छित और अगृद्ध रहना चाहिए। ५८. जो अज्ञात कुलों से भिक्षा को एषणा करने वाला है, जो संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है ( अन्नायउंछंपुल निप्पुलाए): अगस्त्य घृणि के अनुसार 'अज्ञातोच्छपुल' का अर्थ है-अज्ञात-कुल की एषणा करने वाला और 'निष्पुलाक' का अर्थ है-मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगाकर संयम को निस्सार न करने वाला। १- (क) जि० चू० पृ० ३४५ : वायाएवि संजओ, कहं ?, अकुसलवइनिरोधं कुब्वइ, कुसलवइउदीरणं च कज्जे कुब्वइ । (ख) हा० टी०प० २६७ : वाक्संयतः अकुशलवाग्निरोधकुशलवागुदी रुणेन । २-(क) जि० चू० पृ० ३४५ : 'संजइंदिए' नाम इदिय विसयपयारणिरोधं कुब्वइ, विसयपत्त सु इंदियत्थेसु रागहोसविणिग्गहं च कुतित्ति । (ख) हा० टी०प० २६७ : 'संयतेन्द्रियो' निवृत्तविषयप्रसरः । ३-(क) जि० चू० पृ० ३४५ : 'अझप्परए' नाम सोषणज्माणरए । (ख) हा० टी० प० २६७ : 'अध्यात्मरतः' प्रशस्तध्यानासक्तः । ४-जि० चू० पृ० ३४५-३४६ : मुच्छासहो य गिद्धिसद्दो य दोऽवि एगदा, अच्चस्थणिमित्त आयरणिमित्तं च पउंजमाणा ण पुणरुत्तं भवति, अहवा मुच्छियगहियाणं इमो विसेसो भण्णइ, तत्थ मुच्छासद्दो मोहे दट्ठव्वो, गेहियसद्दो पडिबंधे दट्ठवो, जहा कोइ मुच्छिओ तेण मोहकारणेण कज्जाकज्जन याणइ, तहा सोऽवि भिक्खू उहिमि अज्झोववण्णो मुच्छिओ किर कज्जाकज्जन याणइ, तम्हा न मुच्छिओ अमुच्छिओ, अगिद्धिओ अबद्धो भण्णइ, कहं ?, सो तमि उहिमि निच्चमेव आसन्नभव्वत्तणेण अबद्धो इव दट्टवो, णो गिद्धिए अगिद्धिए। ५-१० चू० : तं पुलएति तमेसति एस अण्णाउञ्छपुलाए । ६-अ० चू० : मूलुत्तरगुणपडिसेवणाए निस्सारं संजमं करेंति एस भावपुलाए तथा णिपुलाए। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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