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स भिक्खु (सभ)
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अध्ययन १० : इलोक १७ टि० ५६-६४
जिनदास महत्तर ने 'पुल' को 'पुलाक' शब्द मानकर 'पुलाक निष्पुलाक' की व्याख्या इस प्रकार की है - मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगाने से संयम निस्सार बनता है, वह भावला है। उससे रहित 'पुलाक निष्युला' कहलाता है अर्थात् जिससे संयम पुलाक (सार रहित बनता हो, सा अनुष्ठान न करने वाला।
टीकाकार ने भी 'पुल' को 'पुलाक' शब्द मानकर 'पुलाक निष्पुलाक' का अर्थ संयम को निस्सार बनाने वाले दोषों का सेवन न करने वाला किया है ।
हलायुध 'कोश में 'पुलक' और 'पुलाक' का अर्थ तुच्छ धान्य किया है। मनुस्मृति में इसी अर्थ में 'पुलाक' शब्द का प्रयोग हुआ है ।
५६. सन्निधि से (सन्निहिओ " ) :
अशन आदि को रातवासी रखना सन्निधि कहलाता है
।
ग
६०. जो क्रय-विक्रय से विरत ( कयविश्कप विरए ) :
क्रय-विक्रय को भिक्षु के लिए अनेक जगह वर्जित बताया है। बुद्ध ने भी अपने भिक्षुओं को यही शिक्षा दी थी।
६१. जो सब प्रकार के संरंगों से रहित है ( निर्लेप है ) ( सव्वसंगावगए घ ) :
संग का अर्थ है इन्द्रियों के विषय
लीन हो ।
६२. जो अलोलुप है ( अलोलक ) :
जो अप्राप्त रसों की अभिलाषा नहीं करता, उसे 'अलोल' कहा जाता है" । दश० ९.३.१० में भी यह शब्द आया है । यह शब्द बौद्ध-पिटकों में भी अनेक जगह प्रयुक्त हुआ है ।
मिलाएँ
६३. ( उछं ख ) :
पिछले लोक में
सर्वसंगापगत वही हो सकता है जो बारह प्रकारके तप और सतरह प्रकार के संयम में
श्लोक १७ :
चक्लूहि नैव लोलस्स, गामकथाय आवरये सोतं ।
रसे च नानुमिज्झेय्य न च ममायेय किञ्चि लोकस्मि । सुत्तनिपात ५२.८
का प्रयोग उपधि के लिए हुआ और इस पद में बहार के लिए हुआ है। इसलिए नहीं है।
६४. ऋद्धि ( इड्ढि ग ) :
यहाँ इऋिद्धि का अर्थ योगजन्य विभूति है। इसे लम्बि भी कहा जाता है ये अनेक प्रकार की होती है।
१-- जि० खू० पृ० ३४६ : जेण मूलगुणउत्तरगुणपवेण पडिसेविएण णिस्सारो संजमो भवति सो भावपुलाओ, एत्थ भावपुलाएण अहिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊण परूविया, तेण भावपुलाएण निपुलाए भवेज्जा, णो तं कुब्वेज्जा जेण पुलागो भवेज्जति । २० टी० प० २६८ पुलाला' इति संघमासारतापाददोषरहितः । ३ - १०.१२५ : पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः ।
४ - जि० चू० पृ० ३४६ : सष्णिही' असणादीणं परिवासणं भण्णइ ।
५- सु० नि० ५२.१५ : 'कयविक्कये' न तिट्ठेय्य ।
६- जि०
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१० चू० पृ० ३४६ : संगोत्ति वा इदियत्योति वा एगठ्ठा
७- (क) लि० ० पृ० ३४६किलाबाई रसे अप्पले यो पत्चे से लो (ख) हा० टी० प० २६८ : अलोलो नाम नाप्राप्त प्रार्थनपरः ।
- हा० टी० प० २६८ : तत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिह त्वाहारमित्यपौनरुक्त्यम् । - ० ० ० ३४७ - विउयणमादि।
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