SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन ८: श्लोक १४-२० आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि ) ३७५ १४-कयराइं अट्ठ सुहुमाई कतराणि अप्टौ सूक्ष्माणि, जाई पुच्छेज्ज संजए। यानि पृच्छेत् संयतः। इमानि तानि मेधावी, इमाइं ताई मेहावी आचक्षीत विचक्षणः ॥१४॥ आइक्खेज्ज वियक्खणो॥ १४-वे आठ सूक्ष्म कौन-कौन से हैं ? संयमी शिष्य यह पूछे तब मेधावी और विचक्षण आचार्य कहे कि दे ये हैं १५–सिणेहं पुप्फसुहुमं च पाणुत्तिगं तहेव य।। पणगं बीय हरियं च अंडसुहमं च अट्टमं॥ स्नेहं पुष्प-सूक्ष्मं च, 'प्राणोत्तिङ्ग' तथैव च । 'पनक' बीजं हरितं च, 'अण्डसूक्ष्मं च अष्टमम् ॥१५॥ १५-स्नेह, पुष्प, प्राण, उत्तिङ्ग', काई, बीज, हरित और अण्ड-ये आठ प्रकार के सूक्ष्म हैं। १६-सब इन्द्रियों से समाहित साधु इस प्रकार इन सूक्षण जीवों को सब प्रकार से जानकर अप्रमत्त-भाव से सदा यतना करे । १६--एवमेयाणि जाणित्ता सव्वभावेण संजए। अप्पमत्तो जए निच्चं सविदियसमाहिए ॥ एवमेतानि ज्ञात्वा, सर्वभावेन संयतः। अप्रमत्तो यतेत नित्यं, सर्वेन्द्रिय-समाहितः ॥१६॥ १७–धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पायकंबलं । सेज्जमुच्चारभूमि च संथारं अदुवासणं ॥ ध्र वं च प्रतिलेखयेत्, योगेन पात्र-कम्बलम् । शय्यामुच्चारभूमि च, संस्तारमथवासनम् ।।१७।। १७-मुनि पात्र३, कम्बल शय्या३५, उच्चार-भूमि, संस्तारक" अथवा आसन का यथासमय प्रमाणोपेत प्रतिलेखन करे। १८-४२उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं । फासुयं पडिलेहित्ता परिवावेज्ज संजए॥ उच्चारं प्रस्त्रवणं, 'खेल' सिंघाणं 'जल्लियम्' । प्रासुकं प्रतिलेख्य, परिष्ठापयेत् संयतः ॥१८॥ १८-संयमी मुनि प्रासुक (जीव रहित) भूमि का प्रतिलेखन कर वहाँ उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक के मैल और शरीर के मैल का उत्सर्ग करे। १६-पविसित्तु परागारं पाणट्टा भोयणस्स वा। जयं चिट्ट मियं भासे ण य रूवेसु मणं करे ॥ प्रविश्य परागारं, पानार्थ भोजनाय वा। यतं तिष्ठेत् मितं भाषेत्, न च रूपेषु मनः कुर्यात् ॥१६॥ १६-मुनि जल या भोजन के लिए गहस्थ के घर में प्रवेश करके उचित स्थान में खड़ा रहे४५, परिमित बोले और रूप में मन न करे। २०-बहुँ सणेइ कणेहि। बहु अच्छोहि पेच्छा। न य दिढ सयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ॥ बहु शृणोति कणः, बह्वक्षीभिःप्रेक्षते । न च दृष्टं श्रुतं सर्व, भिक्षुराख्यातुमर्हति ॥२०॥ २०-कानों से बहुत सुनता है, आँखों से बहुत देखता है; किन्तु सब देखे और सुने को कहना भिक्षु के लिए उचित नहीं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy