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दसवैआलियं ( दशवैकालिक )
७ उदउल्लं अप्पणो कार्य
नेव
पुंछे
न संलिहे । तहाभूयं
समुह
नो णं संघट्टए मुणी ॥
"गालं अर्गाणि अच
अलायं या सजोइय
न उंजेज्जा न घट्टज्जा नो णं निव्वावर मुणी ॥
पत्तण
साहावियण वा । न वीएज्ज अप्पणो कार्य बाहिर वा वि पोपलं ॥
९-तालिपटेण
१० तणरुवखं न छिदेज्जा फलं मूलं व कस्सई । आमगं विवि बीय मणसा वि न पत्थए ।
११ गणेस न बिज्जा बीएस हरिएस वा । उदगम्मि तहा निश्च उतिगणमेस
वा ॥
१२- तसे पान हिंसेज्जा
वाया अदुव कम्मुणा । उवरओ सय्यभूएस पासेज्ज विविहं जगं ॥
सहुमाई पेहाए जाई जाणित्त संजए। । दयाहिगारी भूएस, आस चिट्ट सएहि वा ॥
१३ - अट्ठ
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उदामात्मनः कार्य,
लिले ।
समुत्प्रेक्ष्य न तथाभूतं नैनं संघट्टयेत् मुनिः ॥
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अङ्गारमग्निमचिः, अलातं वा सज्योतिः ।
नोसिञ्चेत् न वेद,
नैनं निर्वापयेद् मुनिः ॥ ८॥
तालवृन्तेन पत्रेण शाखा-विद्युनेन वा ।
न व्यजेदात्मनः कार्य, बाह्य वाऽपि पुद्गलम् ॥६॥
सुरक्षन छिन्याद
फलं मूलं वा कस्यचित् । आमकं विविधं बीजं, मनसापि न प्रार्थयेत् ॥ १०॥
गहनेषु न तिष्ठेत्
बीजेषु हरितेषु वा ।
उदके तथा नित्यं, '' वा ॥११॥
त्रसान् प्राणान् न हिस्यात्, वाचा अथवा कर्मणा । उपरतः सर्वभूतेषु
विजगत् ॥१२॥
अष्टसूक्ष्माणि प्रेप, यानि ज्ञात्वा संयतः । दयाधिकारी भूतेषु आस्व उत्तिष्ठ शेष्व वा ॥ १३ ॥
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अध्ययन ८ श्लोक ७-१३
७-मुनि जल से धोने अपने शरीर को" न पोंछे और न मले"। शरीर को तथाभूत ( भीगा हुआ ) देखकर उसका स्पर्श न करे ।
मुनि बङ्गार, अग्नि, अनि और ज्योतिसहित अलात ( जलती लकड़ी ) को न प्रदीप्त करे, न स्पर्श करे और न बुझाए ।
६-मुनि वीजन, पत्र, शाखा या पंखे से अपने शरीर अथवा बाहरी पुद्गलों पर २ हवा न डाले ।
१० – मुनि तृण, वृक्ष ३ तथा किसी भी ( वृक्ष आदि के ) फल या मूल का छेदन न करे और विविध प्रकार के सचित्त बीजों की मन से भी इच्छा न करे ।
११ – मुनि वन निकुञ्ज के बीच २४ बीज, हरित, अनन्ताकि वनस्पति, सर्पच्छत्र २६ और काई पर खड़ा न रहे ।
१२- मुनि वचन अथवा काया से त्रस प्राणियों की हिंसा न करे । सब जीवों के वध से उपरत होकर विभिन्न प्रकार वाले ह जगत् को देखे-- आत्मोपम्यदृष्टि से देखे ।
१३ संयमी मुनि आठ प्रकार के सूक्ष्म (शरीर वाले जीवों को देखकर बैठे खड़ा हो और सोए इन सूक्ष्मदारी वाले जीवों को जानने पर ही कोई सब जीवों की दया का अधिकारी होता है ।
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