________________
मूल १-आवारप्पणिह
ल
जहा कायव्य भिक्खुणा । तं मे उदाहरिस्तामि आणुपुवि सुणेह मे ॥
२ - पुढविदगअगणिमारुय
तणरुक्ख सवा । तसा य पाणा जीव त्ति इइ वृत्त महेक्षिणा ॥
३ ते अच्छणजोग निचं होयस्ययं सिया । मणसा फायदवकेण एवं भवइ संजए ॥
४- पुढव भित्ति सिलं लेलु नेय भिदे न सलिहे। तिविहण करणजोएण सजए समाहिए ।
५- सद्धपुढवीए न निसिए ससरक्यम्मि य आसणे । पमज्जित्त निसीएज्जा जाइता जस्त ओग्यहं ॥
६ - सीओदगं न सेवेज्जा सिलावटु" हिमाणि य उसिणोदगं तत्तफास यं पडिगाहेज्ज संजए ॥
Jain Education International
आवारपणही आचार - प्रणिधि
अट्ठमं अज्झयणं : अष्टम अध्ययन
संस्कृत
आचार - प्रणिधि लब्ध्वा,
यथा कर्तव्यं भिक्षुणा ।
तं भवद्भ्यः उदाहरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणु मे ॥ १॥
पृथिवीदकाग्निमारुताः,
तृणरक्षा: सबीजकाः । त्रसाश्च प्राणाः जीवा इति, इति उक्तं महर्षिणा ||२॥
तेषामक्षण- योगेन, नित्यं भवितव्यं स्यात् । मनसा काय वाक्येन
एवं भवति संयतः ॥३॥
पृथिवीं भित्ति शिलां लेष्टुं नँय भिन्द्यात् न संसि । त्रिविधेन करण-योगेन, संयतः सुसमाहितः ॥४॥
निवेद
ससरक्षे च आसने । प्रमृश्य विषीदेत्
याचित्वा यस्यावग्रहम् ॥५॥
शोदन सेवेत
शिला हिमानि च । उष्णोदकं तप्तप्रागुकं प्रतिगृहीयात् संवतः ||६
For Private & Personal Use Only
हिन्दी अनुवाद
१- आचार - प्रणिधि को पाकर भिक्षु
को जिस प्रकार (जो) करना चाहिए वह मैं तुम्हें कहूँगा । अनुक्रमपूर्वक मुझसे सुनो।
२- पृथ्वी, उदक, अग्नि, वायु, बीपर्यन्त तृणवृक्ष और त्रस प्राणी- ये जीव हैं ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है।
३ --- भिक्षु को मन, वचन और काया से उनके प्रति सदा अहिंसक होना चाहिए । इस प्रकार अहिंसक रहने वाला संयत (संयमी) होता है।
४- सुसमाहित संयमी तीन करण और तीन योग से पृथ्वी, मित्ति ( दरार ), शिला और ढेले का भेदन न करे और न उन्हें कुरे ।
५- मुनि शुद्ध पृथ्वी और सचित रज से ससृष्ट आसन पर न बैठे" । अचित्तपृथ्वी पर प्रमार्जन कर" और वह जिसकी हो उसकी अनुमति लेकर बैठे।
१२
-
६--संयमी शीतोदक १३, ओले, बरसात के जल और हिम का सेवन न करे । तप्त होने पर जो प्रासुक हो गया हो वैसा जल १६ ले ।
www.jainelibrary.org