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________________ प्रामुख याचार का निरूपण उसी को करना चाहिए जिसे वाक्य-शुद्धि का विवेक मिला हो । मौन गुप्ति है, वाणी का प्रयोग समिति । गुप्ति का लाभ अकेले साधक को मिलता है, समिति का लाभ वक्ता और श्रोता दोनों को मिलता है । वाणी का वही प्रयोग समिति है जो सावद्य और अनवद्य के विवेक से सम्वलित हो। जिसे सावद्य-अनव द्य का विवेक न हो उसे बोलना भी उचित नहीं फिर उपदेश देने की बात तो बहुत दूर है। प्रस्तुत अध्ययन में असत्य और सत्यासत्य भाषा के प्रयोग का निषेध किया गया है, क्योंकि भाषा के ये दोनों प्रकार सावद्य ही होते हैं । सत्य और असत्याऽमृषा (व्यवहार-भाषा) के प्रयोग का निषेध भी है और विधान भी हैं । सत्य और व्यवहार-भाषा सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की होती है। वस्तु के यथार्थ रूप का स्पर्श करने वाली भाषा सत्य हो सकती है, किन्तु वह वक्तव्य हो भी सकती है और नहीं भी। जिससे कर्म-परमाणु का प्रवाह पाए वह जीव-वधकारक-भाषा सत्य होने पर भी प्रवक्तव्य है । इस प्रकार निर्ग्रन्थ के लिए क्या वक्तव्य और क्या प्रवक्तव्य-इसका प्रस्तुत अध्ययन में बहुत सूक्ष्म विवेचन है । अहिंसा की दृष्टि से यह बहुत ही मननीय है। दशवकालिक सूत्र अहिंसा का प्राचार-दर्शन है। वाणी का प्रयोग प्राचार का प्रमुख अंग है। अहिंसक को बोलने से पहले और बोलते समय कितनी सूक्ष्म बुद्धि से काम लेना चाहिए, यह अध्ययन उसका निदर्शन है। भाषा के प्रकारों का वर्णन यहाँ नहीं किया गया है। उसके लिए प्रज्ञापना (पद ११) और स्थानाङ्ग (स्था० १०) द्रष्टव्य हैं। वाक्य-शुद्धि से संयम की शुद्धि होती है। अहिंसात्मक वाणी भाव-शुद्धि का निमित्त बनती है। अत: वाक्य-शुद्धि का विवेक देने के लिए स्वतन्त्र अध्ययन रचा गया है । प्रस्तुत अध्ययन सत्य-प्रवाद (छट्ठ) पूर्व से उद्धृत किया गया है । नियुक्तिकार ने मौन और भाषण दोनों को कसौटी पर कसा है। भाषा-विवेकहीन मौन का कोई विशेष मूल्य नहीं है । भाषा-विवेक-सम्पन्न व्यक्ति दिन-भर बोलकर भी मौन की आराधना कर लेता है। इसलिए पहले बुद्धि से विमर्श करना चाहिए फिर बोलना चाहिए। प्राचार्य ने कहा-शिष्य ! तेरी वाणी बुद्धि का वैसे अनुगमन करे जैसे अन्धा आदमी अपने नेता (ले जाने वाले) का अनुगमन करता है । मा १-हा० टी० १०२०७ : "सावज्जणवज्जाणं, वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स ण खमं, किमंग पुण देसणं काउं । २--दश० ७.१,२। ३--वही, ७.२॥ ४-वही, ७.३। ५-वही, ७.११-१३। ६-दश० नि० २८८: जं वक्कं वयमाणस्स संजमो सुज्झई न पुण हिसा । न य अत्तकलुसभावो तेण इहं बक्कसुद्धित्ति ।। ७-वही, १७ : सच्चप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ। ८-वही, २६०-२६२ : वयणविभत्तिअकुसलो वओगयं बहुविहं अयाणंतो। जइवि न भासइ किंची न चेव वयगुत्तयं पत्तो। वयणविभत्तीकुसलो वओगयं बहुविहं वियाणंतो। दिवसपि भासमाणो तहावि वयगुत्तयं पत्तो॥ पुव्वं बुद्धीइ पेहिता पच्छा वयमुयाहरे। अचक्खुओ व नेतारं बुद्धिमन्नेउ ते गिरा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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