________________
दसवेआलियं ( दशवकालिक)
५१२
प्रथम चूलिका : टि० ८-१२
८. गृहवाल ( गिहिवास ):
धुणियों में 'गिहिवास' का अर्थ गृहवास' और टीका में गृहपाश किया है। धूणि के अनुसार गृहवास प्रमाद-बहुल होता है और टीका के अनुसार 'गृह' पाश है । उस में पुत्र-पुत्री आदि का बन्धन है।
६. आतंक ( आयंके ) :
हैजा आदि रोग जो शीघ्र ही मार डालते हैं, वे आतङ्क कहलाते हैं ।
१०. संकल्प ( संकप्पे ) :
आतंक शारीरिक रोग है और संकल्प मानसिक । इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से जो मानसिक आतंक होता है, उसे यहाँ संकल्प कहा गया है।
११. ( सोवक्केसे... ) :
टीकाकार ने वृद्धाभिप्राय का उल्लेख किया है । उसके अनुसार प्रतिपक्ष सहित 'सोवक्केसे, निरुबक्केसे' आदि छह स्थान होते हैं और पत्तेयं पुण्णपाव' से लेकर 'झोसइत्ता' तक एक ही स्थान है । दूसरा मत यह है कि 'सोवक्केसे' आदि प्रतिपक्ष सहित तीन स्थान हैं और 'पत्तेयं पुण्णपाव' आदि स्वतन्त्र हैं५ । वृद्ध शब्द का प्रयोग चूर्णिकारों के लिए किया गया है । दूसरा मत किनका है.----यह स्पष्ट नहीं होता। टीकाकार ने वृद्धाभिप्राय को ही मान्य किया है ।
१२. क्लेश सहित है ( सोवक्केसे ):
कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, सेवा, घृत-लवण आदि की चिन्ता—ये गृहि-जीवन के उपक्लेश हैं, इसलिए उसे सोपक्लेश कहा गया है।
१-(क) अ० चू० : ........गिहत्थवासे।
(ख) जि० चू० पृ० ३५५ : ........"गिही (ण) वासे । २-हा० टी० ५० २७३ : 'गृहपाशमध्ये वसता' मित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते । ३-हा० टी० ५० २७३ : 'आतङ्कः' सद्योघाती विषूचिकादिरोगः । ४-(क) जि० चू० पृ० ३५६ : आयको सारीरं दुक्खं, संकप्पो माणसं, तं च पियविप्पोगमयं संवाससोगभयविसादादिकमणेगहा
संभवति । (ख) हा० टी० प० २७३ : 'संकल्प' इष्टानिष्टवियोगप्राप्तिजो मानसआतङ्कः। ५-हा० टी० प० २७३ : एतदन्तर्गतो वृद्धाभिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव, अन्ये तु व्याचक्षते-सोपक्लेशो गृहिवास इत्यादिषु
षट्सु स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते, एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति चतुर्दशं स्थानम् । ६-जि० चू०प० ३५६-५७ : मिलाइए-'सोवक्केसे गिहवासे'..... एकारसमं पदं गयं ।
'निरुवक्केसे परियाए'.........'बारसमं पदं गतं । 'बंधे गिहवासे...............'तेरसमं पदं गतं । 'मोक्खे परियाए'............ 'चोद्दसमं पदं गतं । 'सावज्जे गिहवासे'....... ." पण्णरसमं पदं गतं ।
'अणवज्जे परियाए'........."सोलसमं पदं गतं । ७-हा० टी०१० २७३ : 'प्रत्येकं पुण्यपाप' मिति"एवमष्टावशं स्थानम् । ८-हा० टी०५० २३७ : उपक्लेशा:-कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताः पण्डितजनहिताः शीतोष्णश्रमादयो धृतलवणचिन्ता
दयश्चेति।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org