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आमुख
आचार वही है जो संक्षेप में तीसरे और विस्तार से छठे अध्ययन में कहा गया है'। इस अध्ययन का प्रतिपाद्य आचार नहीं है। इसका अभिधेय अर्थ है -- प्रवार की प्रणिधि या श्राचारविषयक प्रणिधि । श्राचार एक निधि है । उसे पाकर निर्ग्रन्थ को जैसे चलना चाहिए उसका पथ-दर्शन इस अध्ययन में मिलता है । प्राचार की सरिता में निर्ग्रन्थ इन्द्रिय और मन को कैसे प्रवाहित करे, उसका दिशा-निर्देश मिलता है । प्रणिधि का दूसरा अर्थ है-एकाग्रता, स्थापना या प्रयोग । ये प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं । उच्छृङ्खल प्रश्व सारथि को उन्मार्ग में ले जाते हैं वैसे ही दुष्पति ( राग-द्वेष प्रयुक्त) इन्द्रियां यमण को उत्पथ में ले जाती है। यह इन्द्रिय का विधान है। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में इन्द्रियों की मध्यस्थ प्रवृत्ति हो - राग और द्वेष का लगाव न हो यह उनका सुप्रणिधान है। क्रोध, मान, माया और लोभ का संग्राहक शब्द है--कषाय । जिस श्रमण का कपाय प्रबल होता है उसका श्रामण्य ईक्षु-पुष्प की भांति निष्फल होता है । इसलिए श्रमण को कषाय का निग्रह करना चाहिए। यही है मन का सुप्रणिधान ।
"श्रमण को इन्द्रिय और मन का अप्रशस्त प्रयोग नहीं करना चाहिए, प्रशस्त प्रयोग करना चाहिए" - यह शिक्षण ही इस अध्ययन की आत्मा है, इसलिए इसका नाम 'आचार - प्रणिधि' रखा गया है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में गु-पुरुष-प्रणिधि राज-प्रणिधि, दूत प्रविधि यादि प्रणिधि उत्तरपद वाले कई प्रकरण हैं। इस प्रकार के नामकरण की पद्धति उस समय प्रचलित थी ऐसा जान पड़ता है। अर्थशास्त्र के व्याख्याकार ने प्रणिधि का अर्थ कार्य में लगाना व व्यापार किया है। प्रचार में प्रवृत्त करना व व्यापार करना - ये दोनों अर्थ यहाँ संगत होते हैं। यह 'प्रत्याख्यान प्रवाद' नामक नवें पूर्व की तीसरी इसी की है। वे दैनंदिन व्यवहारों को बड़े मागिती है ।
वस्तु से
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खुले रहते हैं, बहुत सुना जाता है खुली रहती है, बहुत दीख पड़ता है; किन्तु भी और देखी गई सारी बातों को दूसरों से कहे यह भिक्षु के लिए उचित नहीं है। श्रुत और दृष्ट बात के श्रौपघातिक अंश को पचा ले, 'देह में उत्पन्न दुःख को सहना महान् फल का हेतु है' इस विचार मन्थन का नवनीत है हृदय 'देहे पुखं महाफल (श्लोक २७) है। यह 'देहली-दीपक स्वाय' से अध्ययन के धार और पार श्रामण्य के रक्त की शुद्धि के लिए शोधन-यंत्र का काम करता है ।
इसमें कषाय-विजय, निद्रा - विजय, अट्टहास्य-विजय के लिए बड़े सुन्दर निर्देशन दिए गए हैं।
श्रद्धा का सातत्य रहना चाहिए। भाव-विशुद्धि के जिस उत्कर्ष से पैर बढ़ चलें, वे न रुकें और न अपने पथ से हटें ऐसा प्रयत्न होना चाहिए (श्लोक ६१) ।
स्वाध्याय और ध्यान-ये श्रात्म-दोषों को मांजने वाले हैं। इनके द्वारा श्रात्मा परमात्मा बने (श्लोक ६३ ) । यहाँ पहुँचकर 'याचार प्रविधि' सम्पन्न होती है।
१- बा० नि० २९३ जो
आवारी हो अहोमरिसो
२ - दश० नि० २६६ : जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदिआई तवं चरंतस्स । सो हीरई असहोणेहिं सारही वा तुरंगेहि ॥
३
दश० नि० ३०१ : सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । मन्नामि उच्छ्रफुल्लं व निष्फलं तस्स सामन्नं ॥ ४- दश० नि० ३०८ तम्हा उ अप्पसत्थं, पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं । पणिहामि पसर भाणियो 'मायाश्चमिहि' ति ॥
५- दश० नि० १-१७।
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उसे प्रकाशित न करे (श्लोक २०-२१) । अहिंसा । एक दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन का दोनों भागों को प्रकाशित करता है और
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