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विणयसमाही (विनय-समाधि)
४६१ अध्ययन ६ (तृ०उ०) : श्लोक १४-१५ टि० २८-३३
श्लोक १४:
२८. मन, वाणी और शरीर से गुप्त ( तिगुत्तो ग ) :
गुप्ति का अर्थ है--- गोपन, संवरण । वे तीन हैं : (१) मन-गुप्ति, (२) वचन-गुप्ति और (३) काय-गुप्ति' । इन तीनों से जो युक्त होता है, वह 'त्रिगुप्त' कहलाता हैं।
२६. क्रोध, मान, माया और लोभ को दूर करता है ( चउक्कसायावगए घ):
___ कषाय की जानकारी के लिए देखिए ८.३६-३६ ।
श्लोक १५:
३०. सेवा कर (पडियरिय क ):
प्रतिचर्य अर्थात् विधिपूर्वक आराधना करके, शुश्रूषा करके, भक्ति करके ।
३१. जिनमत-निपुण ( जिणमयनिउणे ख )
जो आगम में प्रवीण होता है, उसे 'जिनमत-निपुरण' कहा जाता है।
३२. अभिगम ( विनय-प्रतिपत्ति ) में कुशल ( अभिगमकुसले ख ) :
अभिगम का अर्थ है अतिथि–साधुओं का आदर-सम्मान व भक्ति करना । इस कार्य में जो दक्ष होता है, वह 'अभिगम-कुसल' कहलाता है।
३३. रज और मल को ( रयमलं ग ):
आश्रव-काल में कर्म ‘रज' कहलाता है और बद्ध, स्पृष्ट तथा निकाचित काल में 'मल' कहलाता है । यह अगस्त्यसिंह स्थविर की व्याख्या है । कहीं-कहीं 'रज' का अर्थ आश्रव द्वारा आकृष्ट होने वाले 'कर्म' और 'मल' का अर्थ आश्रव किया है।
१-उत्त० २४.१६-२५ । २- हा० टी० प० २५५ : 'त्रिगुप्तो' मनोगुप्त्यादिमान् । ३- (क) अ० चू० : जधा जोगं सुस्सूसिऊण पडियरिय ।
(ख) जि० चू० पृ० ३२४ : जिणोवइट्ठण विणएण आराहेऊण ।
(ग) हा० टी०प० २५५ : 'परिचर्य' विधिना आराध्य । ४-हा० टी० प० २५५ : 'जिनमतनिपुणः' आगमे प्रवीणः । ५- (क) जि० चू० ० ३२४ : अभिगमो नाम साधूणमायरियाणं जा विणयपडिवत्ती सो अभिगमो भण्णइ, तमि कुसले ।
(ख) हा० टी० प० २५५ : 'अभिगमकुशलो' लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षः । ६-अ० चू० : आश्रवकालेरयो बद्धपुट्ठनिकाइयं कम्म मलो।
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