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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
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अध्ययन २: श्लोक ११ टि०४१
इस प्रकार है : मन में अभिलाषा होने पर कापुरुष अभिलाषा के अनुरूप ही चेष्टा करता है पर पुरुषार्थी पुरुष मोहोदय के वश ऐसा संकल्प उपस्थित होने पर भी आत्मा को जीत लेता है उसे पाप से वापस मोड़ लेता है । गिरती हुई आत्मा को पुन: स्थिर कर रथने मि ने जो प्रवल पुरुषार्थ दिखाया उसी कारण उन्हें पुरुषोत्तम कहा है। राजीमती के उपदेश को सुन कर धर्म में पुनः स्थिर होने के बाद उनकी अवस्था का चित्रण करते हुए लिखा गया है : "मनगुप्त, वचनगुप्त, कायगुप्त तथा जितेन्द्रिय हो उन दृढव्रती रथनेमि ने निश्चलता से जीवन-पर्यन्त श्रमण-धर्म का पालन किया। उग्र तप का आचरण कर वे केवलज्ञानी हुए और सर्व कर्मों का क्षय कर अनुत्तर सिद्ध-गति को प्राप्त हुए।" इस कारण से भी वे पुरुषोत्तम थे ।
१-उत्त० २२.४७,४८ :
मणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइन्दिओ। सामण्णं निच्चलं फासे, जावज्जीवं दढव्वओ॥ उग्गं तवं चरिताणं, जाया दोणि वि केवली। सव्वं कम्म खवित्ताण, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ।।
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