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________________ सामण्णव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) ३८. अस्थितात्मा हो जायेगा ( अट्ठियप्पा भविस्ससि ): राजीमती इस श्लोक में जो कहती है उसका सार इस प्रकार है : हड वनस्पति के भूल नहीं होता । वायु के एक हल्के से स्पर्श से ही यह वनस्पति जल में इधर-उधर बहने लगती है । इसी तरह यदि तू दृष्ट-नारी के प्रति अनुराग करने लगेगा तो संयम में श्रबद्धमूल होने से तुझे संसार-समुद्र में प्रमाद- पवन से प्रेरित हो इधर-उधर भव-भ्रमण करते रहना पड़ेगा । पृथ्वी अनन्त स्त्री-रत्नों से परिपूर्ण है । जहाँ-तहाँ स्त्रियां दृष्टिगोचर होंगी। उन्हें देख कर यदि तू उनके प्रति ऐसा भाव ( अभिलाषा, अभिप्राय) करने लगेगा जैसा कि तू मेरे प्रति कर रहा है तो संयम में अवढमूल हो, श्रमण-गुणों से रिक्त हो, केवल तिगवारी हो जायेगा । श्लोक १० : ३९. सुभाषित ( सुभातिषं व ) इसका अर्थ है अच्छे कहे हुए। राजीमती के वचन संसार भय से उद्विग्न करनेवाले', संवेग - वैराग्य उत्पन्न करनेवाले हैं' अतः सुभाषित कहे गये हैं । यह वचन (वय) का विशेषण है। ३५ अध्ययन २ श्लोक १०-११ टि० ३८-४१ : श्लोक ११ ४०. संबुद्ध, पण्डित र प्रविण ( संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा कख ): प्रायः प्रतियों में 'संबुद्धा' पाठ मिलता है । 'उत्तराध्ययन' सूत्र में भी 'संबुद्धा' पाठ ही है। पर घूर्णिकार ने 'संपण्णा' पाठ स्वीकार कर व्याख्या की है । वर्णिकार के अनुसार 'संप्राज्ञ' का अर्थ है प्रज्ञा - बुद्धि से सम्पन्न । 'पण्डित' का अर्थ है- परित्यक्त भोगों के प्रत्याचरण में दोषों को जाननेवाला" प्रविण' का अर्थ है पापभीरु जो संसार भय से उद्विग्न हो चोड़ा भी पाप करना नहीं चाहता। हरिभद्रसूरि के सम्मुख 'संबुद्धा' पाठ वाली प्रतियाँ ही रहीं। उन्होंने निम्न रूप से व्याख्या की है : 'संबुद्ध' – 'बुद्ध' बुद्धिमान् को कहते हैं । जो बुद्धिमान् सम्यक् दर्शन सहित होता है, वह संबुद्ध कहलाता है । विषयों के स्वभाव को जाननेवाला सम्यक् दृष्टि-- 'संबुद्ध ' है 'पण्डित' सम्य-ज्ञान से सम्पन्न हो 'अविक्षण' जो सभ्य चारित्र से युक्त हो । । हरिभद्रसूरि के सम्मुख पुर्णिकार से प्रायः मिलती हुई व्याख्या भी थी, जिसका उल्लेख उन्होंने मतान्तर के रूप में किया है"। ४१. पुरुषोत्तम ( पुरिसोत्तमो ) : प्रश्न है— प्रव्रजित होने पर भी रथनेमि विषय की अभिलाषा करने लगे फिर उन्हें पुरुषोत्तम क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर १- हा० टी० प० ६७ : सकलदुः खक्षयनिबन्धनेषु संयमगुगेष्व (प्रति) बद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवन प्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिष्यसीति । ३-० ० १० ११ संसारभउब्वेगकरेहि पहि ४० टी० प० १७ 'सुभाषितं संवेगि २ --- जि० चू० पृ० ८६ : हढो वातेण य आइद्धो इओ इओ य निज्जइ, तहा तुमपि एवं करेंतो संजमे अबद्धमूलो समणगुणपरिहीणो केवलं दवलिंगधारी भविस्ससि : ५- उत्त० २२.४६ । ६- जि० ० १० १२ ७- जि० संपण्णा नाम पण्णा बुद्धी मण, ती बुद्धीव उपनेता संपण्या भण्यंति। ० चू० पृ० ६२ : पंडिया णाम चत्ताण भोगाणं पडियाइने जे दोसा परिजाणती पंडिया । १०- हा० टी०प० εE: अन्ये 5-जि० ० चू० पृ० ६२ : पविक्खणा णामावज्जभीरू भण्णंति, वज्जभीरुणो णाम संसारभउब्विग्गा योवमवि पावं च्छति । ६ - हा० टी० प० ६६ : 'संबुद्धा' बुद्धिमन्तो बुद्धा; सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनेकीभावेन वा बुद्धाः संबुद्धा विदितविषयस्वभावाः, सम्यग्दृष्टयः पण्डिताः - सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणाः- चरणपरिणामवन्तः । Jain Education International 'तु व्याचक्षते - संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः पण्डिता वान्तभोगासेवनदोषज्ञाः प्रविचक्षणा अवद्य भीरवः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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