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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
४३२ अध्ययन ६ (प्र० उ०) : श्लोक ३-५ टि० १०-१४
श्लोक ३:
१०. ( पगईए मंदा वि क ) :
इसका अनुवाद 'वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मंद (प्रज्ञा-विकल)' किया है। इसका आधार टीका है । अगस्त्य चूणि के अनुसार इसका अनुवाद-स्वभाव से मंद होते हुए भी उपशान्त होते हैं-यह होता है।
११. श्रत और बुद्धि से सम्पन्न ( सुयबुद्धोववेया):
अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसका अर्थ बहुश्रुत पण्डित किया है, परन्तु टीकाकार ने भविष्य में होने वाली बहुश्रुतता के आधार पर वर्तमान में उसको अल्पश्रुत' माना है।
श्लोक ४:
१२. संसार में ( जाइपहंघ ) :
इसका अर्थ है 'संसार' । अगस्त्य पूणि में जातिवघ को मूल और जातिपथ को वैकल्पिक पाठ माना है । जातिवध का अर्थ-जन्ममरण और जातिपथ का अर्थ जातिमार्ग (ससार) है। जिनदास धूणि और टीका में इसका अर्थ द्वीन्द्रिय आदि की योनियों में भ्रमण करना किया है।
श्लोक ५:
१३. श्लोक ५ :
इस श्लोक के तृतीय और चतुर्थ चरण और दसवें श्लोक के प्रथम और द्वितीय चरण तुल्य हैं। टीकाकार अबोधि को कम मानते हैं और 'कुर्वन्ति' क्रिया का अध्याहार करते हैं । इनमें प्रयुक्त 'आसायण' शब्द में कोई विभक्ति नहीं है । उसे तीन विभक्तियों में परिवर्तित किया जा सकता है : 'आशातनया, आशातनातः, सत्यामाशातनायाम्,'-आसातना से, आसातना के द्वारा, आसातना में। जिनदास चुणि (पृ. ३०६) में 'आसायणा दोसावहा' ऐसा किया है।
१४. आशीविष सर्प ( आसीविसो २ ):
इसका अर्थ सर्प है। अगस्त्य घुणि में 'आसो' का अर्थ सर्प की दाढा किया है। जिसकी दाढा में विष हो, उसे 'आसीविस' कहा जाता है।
१--हा० टी० ५० २४४ : 'पगइत्ति सूत्र, 'प्रकृत्या' स्वभावेन कर्मवैचित्र्यात् 'मन्दा अपि' सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्ति 'एके' केचन
वयोवृद्धा अपि। २-० चू० पृ० २०७ : स्वभावो पगती, तीए मंदा वि णातिवायाला उवसंता। ३-अ० चू० पृ० २०७ : सुतबुद्धोववेता....'बहसुता पंडिता। ४-हा० टी०प० २४४ : भाविनों वृत्तिमाश्रित्याल्पश्रुता इति । ५–अ० चू० पृ० २०७ : जाती-समुप्पत्ती, वधो-मरणं, जम्ममरणाणि, अधवा जातिपथं--जातिमग्गं संसारं । ६-(क) जि० चू० ५० ३०४ : बेइं दियाईसु जातीस ।
(ख) हा० टी० ५० २४४ : 'जातोपन्थानं' द्वीन्द्रियादिजातिमार्गम् । ७-(क) दश० ६.१.५ हा० टी०५० २४४ : कुर्वन्ति अबोधिम् ।
(ख) वही, ६.१.१० हा० टी० पृ० २४५ : पूर्वाध पूर्ववत् । ८-अ० चू०पृ०२०८ : सप्पस्स दाढा आसी, आसीए विसं जस्स सो आसीविसो।
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