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दसवेआलियं ( दशर्वकालिक )
अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ४४ शब्द का प्रयोग है इसलिए इसका सम्बन्ध धूम-पान से ही होना चाहिए। वमन, विरेचन और वस्ति कर्म के साथ 'धूम-नेत्र' का निकट सम्बन्ध है' । इसलिए प्रकरण की दृष्टि से भी 'धूपन' की अपेक्षा 'धूम-नेत्र' अधिक उपयुक्त है । अगत्यहि स्थविर मे बति' पाठ को मूल माना है और मान कर उसका संस्कृत रूप धूपन किया है और मतान्तर का उल्लेख दृष्टि से विचार करने पर घूर्णिकारों के अनुसार मुख्य अर्थ धूम-पान है मुख्य अर्थ है और धूम-पान गौण । इस स्थिति में मूल पाठ का निश्चय करना कठिन होता है, किन्तु इसके साथ जुड़े हुए 'इति' शब्द की अर्थ-हीनता और उत्तराध्ययन में प्रयुक्त 'धूमणेत्तं" के आधार पर ऐसा लगता है कि मूल पाठ 'धूमणेत्त' या 'धूवणेत्त' रहा है। बाद में प्रतिलिपि होते-होते यह 'धुवणेत्ति' के रूप में बदल गया ऐसा सम्भव है । प्राकृत के लिङ्ग अतन्त्र होते हैं, इसलिए सम्भव है यह धूवणेत्ति' या 'धूमणेत्ति' भी रहा हो ।
पति को पाठान्तर हरिभद्रसूरि ने मूल पाठ 'वन्ति' करते हुए उन्होंने इसका अर्थ धूम-पान भी किया है । अर्थ की और धूप- खेना गोण अर्थ है। टीकाकार के अभिमत में धूप-खेना
बौद्ध भिक्षु धूमपान करने लगे तब महात्मा बुद्ध ने उन्हें धूम-नेत्र की अनुमति दी । ५ फिर भिक्षु सुवर्ण, रौप्य आदि के धूमनेत्र रखने लगे। इससे लगता है कि भिजुओं और संन्यासियों में घूमपान करने के लिए घूमनेत्र रखने की प्रथा थी, किंतु भगवान् महावीर ने अपने निर्ग्रथों को इसे रखने की अनुमति नहीं दी ।
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४४ वमन, वस्तिकर्म, विरेचन ( वमणे य कवस्थीकम्म विरेषणे ) :
वमन का अर्थ है उल्टी करना, मदनफल आदि के प्रयोग से आहार को बाहर निकालना । इसे ऊर्ध्व - विरेक कहा है" :
अपान मार्ग के द्वारा स्नेह आदि के प्रक्षेप को वस्तिकर्म कहा जाता है। आयुर्वेद में विभिन्न प्रकार के वस्तिकर्मों का उल्लेख मिलता है'। अगस्त्यतिर स्थविर के अनुसार चर्म की नली को 'वस्ति' कहते हैं। उसके द्वारा स्नेह का चढ़ाना वस्तिकर्म है । जिनदास और हरिभद्र ने भी यही अर्थ किया हैं"। निशीथ चूर्णिकार के अनुसार वस्तिकर्म कटि-वात, अर्श आदि को मिटाने के लिए किया जाता था" ।
विरेचन का अर्थ है - जुलाब के द्वारा मल को दूर करना। इसे अबोविरेक कहा है" । इन्हें यहाँ अतिचार कहा है । इनका निषेध सूत्रकृताङ्ग में भी आया है" ।
१ -चरक० सू० ५.१७-३७ ।
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अ० ० ६२
[३] हा० डी० प० ११० धूपनमित्यात्मवादेरनाचरितम् प्राकृत्या नवव्याधिनिवृतये धूमपानमित्यन्ये याचते ।
४ उत्त० १५.८ ।
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सिसिलोगो
५.विनयपिटकमा ६.२.७ अनुजानामि विघूमनेति ।
६. विनयपिटक महावय ६.२.७ ७- (क) अ० चु० : वमणं छडणं ।
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(ख) हा० टी० प० ११८ वमनम् (ग) सूत्र० १.६.१२ टी० प० १८० : वमनम्
- चरक० सिद्धि० १
९-२० जू० पृ० ६२ वत्थी
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भिक्खू उच्चावचानि घूमनेतानि पारेति सोवन्नमयं रूपमयं ।
मदनफलादिना ।
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१० – (क) जि० चू० पृ० ११५ (ख) हा० टी० प० ११८
गिरोहादिदाणत्वं चम्ममयो पालियाउसो कीरति तेषं कम्म अपणानं सिनेहादिदानं ब वत्थोकम्मं नाम वत्थी दइओ भण्णइ, तेण दइएण घयाईणि अधिद्वाणे दिज्जति । वस्तिका पुट स्नेहानं
1.
११ - नि० भा० गा० ४३३० चूर्णि पृ० ३९२ : कडिवायअरिस विणास णत्थं च अपाणद्दारेण वत्थिणा तेल्ला दिप्पदाण' वत्थिकम्मं ।
ऊर्ध्वविरेकः ।
१२ (क) अ० चू० पृ० ६२ : विरेयण कसायादीहि सोधण ।
(ख) हा० टी० प० ११८: विरेचनं दन्त्यादिना ।
(ग) सू० १.२.१२ डी० १० १५० विरेचनं निरूहात्मकमधोविरेको ।
१३ – सू० १.६.१२ : धोयण रयण चेव, वत्थोकम्मं विरेयण' ।
वमण जण पलीमंथं, तं विज्जं ! परिजाणिया ॥
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